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Nijanand Sampraday (Nijanand Darshan)
'निजानन्द सम्प्रदाय (निजानन्द दर्शन)'
[1]निजानन्द दर्शन:-
दर्शन का अभिप्राय है ज्ञान की वह विधा जिसमें यथार्थ सत्य का साक्षात्कार करने का मार्ग बताया गया हो। यह दो धरातल पर होता है- आत्म चक्षु से साक्षात्कार या ऋतम्भरा प्रज्ञा से सत्य के मूल तक पहुंच जाना कि वास्तविक सत्य क्या है ? भारतीय मनीषियों ने छह दर्शनों की रचना ऋतम्भरा प्रज्ञा के द्वारा की है और इसमें आत्म तत्व से भी जो सत्य अनुभूत हुआ है उसका वर्णन है।
निजानंद दर्शन श्री प्राणनाथ जी की तारतम वाणी से प्रसूत वह अलौकिक ज्ञान है जिसके द्वारा समस्त संसार को उस परम सत्य का बोध हो सकता है जिसे जानने के लिए वह प्रतीक्षारत रहा है। निजानन्द अर्थात् निज+आनन्द। ‘निज’ का तात्पर्य है ‘मैं’ अथवा ‘स्वयं’। और आनन्द तात्पर्य है आत्मिक सुख।
सृष्टि के प्रारम्भ से ही मनीषियों के हृदय में उसी निज स्वरुप की पहचान से सम्बन्धित प्रश्न चले आ रहे हैं कि ‘‘मैं कौन हूं ?’’ ‘‘कहां से आया हूं ?’’ ‘‘मेरा निज स्वरूप क्या है? ’’मेरी आत्मा का अनादि प्रियतम कहां है ? कैसा है और कैसे प्राप्त होता है ?
इनका समाधान जानने की जिज्ञासा में संसार का हर मनीषी लगा रहा है, लेकिन कोई यथार्थ रूप से जान नहीं पाया था। श्री निजानन्द सम्प्रदाय के अनुसार इन दार्शनिक प्रश्नों का यथावत समाधान इस प्रकार है-
ब्रह्म सच्चिदानन्द (सत्+चित्+आनन्द) स्वरुप है। सच्चिदानन्द परब्रह्म के ‘सत’ अंग को अक्षर कहा जाता है। अक्षर ब्रह्म के अन्दर असंख्यों ब्रह्माण्डों को उत्पन्न करने और लय करने की इच्छा को मूल प्रकृति कहते है-
निज लीला ब्रह्म बाल चरित। जाकी इच्छा मूल प्रकृत ।।
प्रकाश हिन्दुस्तानी प्रकरण 37/ चौपाई 15
(विस्तृत वर्णन पढ़ने के लिए "श्री प्रकाश हिन्दुस्तानी"
इस मूल प्रकृति से प्रकृति एवं तत्पश्चात् मोहतत्व की उत्पति होती है, जो इस नश्वर जगत का उपादान कारण है। इसके पश्चात् अक्षर ब्रह्म के मन अव्याकृत के विलास स्वरुप मोह सागर की रचना हुई, जिसमें उसका मन का सांकल्पिक स्वरुप आदि नारायण (महाविष्णु, प्रणव) का स्वरुप बना जिसे ‘क्षर पुरुष’ कहा जाता है।
गीता[2] इन्हीं तीन पुरुषों की विवेचना में कहती है-
द्वाविमौ पुरूषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।
उत्तमः पुरूषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः।।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरूषोत्तमः।।15/16,17,18
उत्तर- इस संसार में दो पुरूष हैं- एक क्षर है जो नश्वर है, दूसरा अक्षर है, अविनश्वर है। अक्षर को कूटस्थ भी कहते है। परन्तु इन दोनों से भिन्न एक अन्य उत्तम पुरूष है जिसे परमात्मा कहा जाता है। ब्राह्मी अवस्था में श्री कृष्ण जी कहते है कि मैं क्षर से परे हूं, और अक्षर से उत्तम हूं, और इस संसार में मैं पुरूषोत्तम नाम से प्रख्यात हूं।
इन श्लोकों में तीन पुरूषों का वर्णन आया है- ‘क्षर’ ‘अक्षर’ और ‘पुरूषोत्तम’। पुरूष का अर्थ है ‘पुरि शयात् पुरूषः’ अर्थात् पुरी में शयन करने वाला पुरूष है। इस कथन के अनुसार केवल चेतन तत्त्व ही पुरूष कहलने का अधिकारी है न कि जड़ प्रकृति। सर्वप्रथम निजानन्द दर्शन के अनुसार तीन पुरूषों की व्याख्या करते है। तदोपरान्त अन्य मतमार्गों की विचारधारा का विश्लेषण और समीक्षा करेंगे।
क्षर पुरूष:- क्षर का अर्थ है जो नश्वर हो, जिसका क्षरण हो रहा हो (क्षरतीतिक्षरः) क्षर पुरूष से अभिप्राय आदिनारायण (शबल ब्रह्म, ओ3म, हिरण्यगर्भ) से है। आदिनारायण को क्षर पुरूष इसीलिए कहा क्योंकि इनका स्वरूप स्वाप्निक जैसा होता है। अक्षर ब्रह्म के द्वारा सृष्टि रचना का संकल्प होते ही अक्षर के मनस्वरूप अव्याकृत की प्रकृति (सुमंगला) के द्वारा मोहसागर (कारण प्रकृति) को प्रकट कर दिया जाता है, जिसमें अव्याकृत पुरूष का मन प्रतिबिम्बित होकर स्वयं को नारायण के रूप में देखने लगता है। यही क्षर पुरूष है। यद्यपि सर्वज्ञ और चेतन ब्रह्म में नींद का विकार नहीं होता किन्तु अपनी चैतन्य प्रकृति से होने वाली अखण्ड आनन्द रस की लीला को छोड़कर जड़ रूप मोह सागर अर्थात् कालमाया की लीला को देखना शास्त्रीय भाषा में स्वप्न देखना कहा गया है। सभी जीव उसी मूल स्वप्न द्रष्टा आदिनारायण (ईश्वर, प्रणव, शबल ब्रह्म) के सांकल्पिक प्रतिबिम्ब चेतन के स्वरूप कहे गये है जो त्रिगुणात्मक प्रकृति के बन्धन में बन्धकर कर्मफल का भोग करते रहते है।
अक्षर पुरूष:- अक्षर का अर्थ है ‘न क्षरति न क्षीयते वाऽक्षरं’ अर्थात् जिसका क्षरण नहीं होता, जो कूटस्थ है, अनीश्वर है। यह अक्षर पुरूष ही अनन्त ब्रह्माण्डों का आधार है और आदिनारायण (शबल ब्रह्म, ईश्वर) का मूल है। इसी अक्षर पुरूष के मनस्वरूप अव्याकृत का बिम्ब मोहसागर में आदिनारायण के रूप में प्रतिबिम्बित होता है। यजुर्वेद की एक ऋचा में कहा है-
ऋतश्च सत्यश्च धु्रवश्च धरूणश्च ।
धर्त्ता च विधर्त्ता च विधारयः ।। यजुर्वेद अ. 17/82
अर्थात् सत्य को धारण करने वाला, श्रेष्ठों में श्रेष्ठ, दृढ़ निश्चय युक्त, सबको धारण करने वाला, धारकों का भी धारक और विशेष रूप से सब व्यवहार को धारण करने वाला ब्रह्म है।
इसमें अक्षर ब्रह्म को भ्रान्तित्व से रहित, अद्वितीय तथा अपनी सत्ता से असंख्य लोकों का धारण करने वाला कहा है।
अथर्ववेद की एक और ऋचा में अक्षर ब्रह्म को चतुष्पाद विभूति कहा है-
यस्य नेशे यज्ञपतिर्न यज्ञो नास्य दातेशे न प्रतिग्रहीता।
यो विश्वजिद् विश्वभृद विश्वकर्मा धर्म नो बू्रत यतमश्चतुष्पात्।।
अथर्ववेद 4/12/5
अर्थात् यज्ञमान भी जिस ब्रह्म का ईश्वर नहीं, यज्ञ भी नहीं, कोई दानी पुरूष भी इसका ईश्वर नहीं और दान लेने वाला कोई धार्मिक व्यक्ति भी नहीं। जो ब्रह्म सबको जीतने वाला, सबका पालक, पोषक, सबकी रचना करने वाला है। हे ज्ञानी पुरूषों! उस तेजस्वरूप, प्रकाशवान ब्रह्म का हमें उपदेश करो, (यतमः चतुष्पाद्) जो चार पाद वाला है।
इस ऋचा में अक्षर ब्रह्म की महिमा गाई गई है। वह सबसे महान है। सबकी रचना करने वाला अर्थात् असंख्य ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति और संहार करने वाला है। अक्षर ब्रह्म की चतुष्पाद विभूति है। उसके चार पाद (सत स्वरूप, केवल, सबलिक और अव्याकृत) है।
ऋग्वेद की एक ऋचा में कहा गया है-
पुरूष एवेदं यद भूतं यच्च भाव्यम् ।
पादोऽस्य सर्वा भूतानि त्रिपादस्यमृतं दिवि ।।
ऋग्वेद 10/10/2-3, यजुर्वेद 31/2-3, सामवेद आ. 6/4/5
अर्थात् जो उत्पन्न हुआ, जो उत्पन्न होने वाला है, और जो यह वर्तमान जगत चल रहा है, इन सब में पुरूष ही अपनी महिमा दर्शा रहा है। सभी चराचर प्राणी तथा लोक लोकान्तर इस पुरूष के एक पाद के संकल्प से निर्मित है और इस पुरूष के तीन पाद उत्पत्ति और विनाश से रहित अपने अखण्ड प्रकाशमय स्वरूप में विद्यमान रहते हैं।
अर्थात् अखण्ड अविनाशी अक्षर ब्रह्म के चतुर्थ पाद अव्याकृत के संकल्प से अनन्त ब्रह्माण्डों का सृजन और लय होता है। यह उसकी सत्ता की लीला है। अक्षर ब्रह्म के द्वारा सृष्टि रचना की इस लीला को तारतम वाणी में स्पष्ट शब्दों में वर्णित किया गया है-
अक्षर सरूप के पल में, ऐसे कई कोट इण्ड उपजे ।
पल में पैदा करके, फेर वाही पल में खपे ।। कि. 74/26
शेष तीन पाद (सत्स्वरूप, केवल और सबलिक) भी प्रकाशमय हैं, अखण्ड हैं और इनमें अक्षर की आनन्द की लीला होती है। अक्षर तत्व को बुद्धि ग्राह्य बनाने के लिए इसे अन्तस्करण के चार अवयवों के माध्यम से समझा जा सकता हे। स्मरण रहे कि ब्रह्म के स्वरूप में प्रकृतिजन्य विकार मन, बुद्धि, अहं और चित्त का कोई स्थान नहीं। यह वर्गीकरण अक्षर तत्व को समझने मात्र के लिए है। अक्षर का सत्स्वरूप अक्षर ब्रह्म के अहं का प्रतीक है। इसकी अभिन्न शक्ति/माया मूलमाया कही जाती है। अक्षर का दूसरा पाद केवल ब्रह्म अक्षर की बुद्धि का प्रतीक है जहां आनन्द की लीला हैं। इसकी अभिन्न शक्ति/माया आनन्द योगमाया है।
अक्षर का तीसरा पाद सबलिक ब्रह्म अक्षर के चित्त का प्रतीक है। इसकी अभिन्न शक्ति/माया चिद्रूप माया है। अक्षर का चौथे पाद अव्याकृत ब्रह्म अक्षर के मन का प्रतीक है। जिस प्रकार मानवीय मन अनेक प्रकार के संकल्प, विकल्प को करने वाला है, उसी प्रकार अक्षर के इस चौथे पाद से सृष्टि रचना और संहार का संकल्प होता है। इसकी अभिन्न शक्ति/माया को सदू्रप माया कहते हैं।
जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है कि अक्षर की यह चतुष्पाद विभूति मूल अक्षर के अन्तस्करण का लीला विलास क्षेत्र मात्र है। मूल अक्षर ब्रह्म तो इस चतुष्पाद विभूति से भी परे है। उसमें अन्तस्करण की लीला नहीं होती, वह कूटस्थ है। कूटस्थ का अर्थ है- ‘कूटः राशि राशिरिव स्थितः’ अर्थात् जो राशि की भ्रांति स्थित है।
स्वामी चिन्मयानन्द ने कूट का अर्थ निहाई किया है, जिस प्रकार निहाई के ऊपर स्वर्ण को रखकर स्वर्णकार आभूषण बनाता है। इस प्रक्रिया में स्वर्ण तो परिवर्तित होता है परन्तु निहाई अविकारी रहती है, उसी प्रकार अक्षर ब्रह्म के संकल्प मात्र से अनेक ब्रह्माण्डों का सृजन और संहार होता है लेकिन अक्षर ब्रह्म कर्म के बन्धन से परे रहता है, निर्विकार रहता है और सदैव अपने रूप में कूटस्थ है। अक्षर के इस मूल स्वरूप को ऋग्वेद और यजुर्वेद में भी वर्णित किया गया है-
एतावानस्य महिमातो ज्यायॉश्च पूरूषः।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नोनातिरोहति ।। ऋग्वेद 10/10/3-2 यजुर्वेद 32/3-2
अर्थात् यह दृश्य-अदृश्य ब्रह्माण्ड केवल इस ब्रह्म की महिमा का सूचक है। पुरूष तो इस ब्रह्माण्ड से बहुत बड़ा है वह ब्रह्म जीवों के मोक्षसुख का भी स्वामी है, जो मोक्ष सुख भी अन्नमय शरीर के आधार पर प्ररोहित होता है।
इसमें अक्षर ब्रह्म की महिमा गाई गई है। मानवीय बुद्धि के द्वारा असंख्य ब्रह्माण्डों का परिमाप (ज्ञान) करना असम्भव है। यह सम्पूर्ण विस्तार उस महान ब्रह्म की महिमा का प्रतीक है। इससे भी परे असीमित विस्तार वाला अक्षर ब्रह्म का चतुष्पाद विभूति रूप है जिससे परे अक्षर ब्रह्म का मूल स्वरूप है। सामवेद में कहा गया है-
‘त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरूषः पादोस्येहाभवत् पुनः’ (यजु. अ. 31 मं. 4)
अर्थात् त्रिपाद अमृत सबलिक, केवल और सत्स्वरूप के ऊपर अक्षर ब्रह्म का मूल स्वरूप है और यह जड़ जगत चौथे पाद (अव्याकृत) से उत्पन्न होता है।
उत्तम पुरूष:- उत्तम पुरूष का अर्थ है जो सबसे उत्तम है, क्षर और अक्षर से भी विलक्षण है (उत्कृष्टतमः अत्यन्तविलक्षणः) दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जो क्षर और अक्षर से भी परे/अतीत है। वह उत्तम पुरूष अक्षरातीत नाम से भी जाना जाता है।
इसका प्रमाण मुण्डकोपनिषद् द्वितीय मुण्डक प्रथम खण्ड मन्त्र 2 में आया है, जहा ऋषि का कथन है- ‘अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रोह्यक्षरात् परतः परः’ इस कथन का निष्कर्ष यह निकलता है कि उस अनादि, अविनाशी, कूटस्थ अक्षर ब्रह्म से परे जो चिद्घन स्वरूप है, उन्हें ही अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म कहते हैं। अक्षरातीत ब्रह्म का वह स्वरूप इस प्रकृति/संसार में नहीं अपितु क्षर, अक्षर से परे अपने दिव्य धाम परमधाम में है। अथर्ववेद में अक्षरातीत उत्तम पुरूष एवं परमधाम को पूर्ण रूप बताया है जहां पूर्ण परब्रह्म अक्षरातीत से ही पूर्ण परमधाम प्रकाशित हो रहा है।
पूर्णात् पूर्णमुदचति पूर्णं पूर्णेन सिच्यते।
उतो उदद्य विद्याम यतस्तत् परिषिच्यते ।। अथर्ववेद 10/8/21
अर्थात् (पूर्णात्) पूर्णब्रह्म से (पूर्णम) पूर्ण परमधाम (उद् अचति) प्रकाशित होता है। (पूर्णेन) पूर्णब्रह्म के द्वारा (पूर्णम्) पूर्ण परमधाम (सिच्यते) आनन्द और प्रेम रस से सीचा जाता है। (उतो) और (अद्य) आज (तत्) उस परब्रह्म का हम (विद्याम्) ज्ञान प्राप्त करे (यतः) जिससे कि (तत्) वह परमधाम (परिषिच्यते) सींचा जा रहा है।
इसका भावार्थ यह है कि अक्षरातीत परब्रह्म की तरह उनका धाम भी पूर्ण है। उसमें से न तो कुछ घट सकता है न बढ़ सकता है। परब्रह्म अक्षरातीत का निज स्वरूप जिस प्रकार तेजोमयी (शुक्रमयी) अनन्त प्रेममयी और आनन्दमयी है, वही स्वरूप परमधाम का भी है अर्थात् पूर्णब्रह्म के प्रेम और आनन्द रस से सम्पूर्ण परमधाम ओत-प्रोत है। उसमें कभी भी किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आ सकती। अक्षरातीत परब्रह्म के परिपूर्ण, पूर्णकाम और आनन्दरस से परिपूर्ण इस स्वरूप की महिमा अथर्ववेद के 10 वें काण्ड, सूक्त 8 और मन्त्र 44 में भी गाई गई है। अकामो धीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः। तमेव विद्वान् न बिभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम् ।। प्रस्तुत मन्त्र में अनादि अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म को स्वयंभू, पूर्णकाम, अमृत स्वरूप वाला अर्थात् अविनाशी तथा अनन्त एवं अखण्ड आनन्द का मूल स्रोत कहा गया है। वह नित्य तरूण स्वरूप वाले हैं। उनमें न तो कभी वृद्धावस्था आयी है और न कभी आएगी क्योंकि उनका स्वरूप पंचभौतिक न होकर चेतन, तेजोमयी और अविनाशी है। जो विद्वान पुरूष ब्रह्म के इस स्वरूप को जान लेता है वह कभी भी मृत्यु से नहीं डरता।
संक्षिप्त रूप में यह कहा जा सकता है कि दृश्यमान् जगत का अधिष्ठाता आदिनारायण है जो स्वयं अक्षर पुरूष का मोहसागर में प्रतिबिम्बित रूप है, वह क्षर पुरूष कहलाता है। कालमाया के इस ब्रह्माण्ड से परे जो नित्य, अविनाशी, निर्विकार पुरूष है वह अक्षर ब्रह्म है। अपने अन्तस्करण के प्रतीकात्मक स्वरूप चतुष्पाद विभूति (सत्स्वरूप, केवल ब्रह्म, सबलिक ब्रह्म, अव्याकृत ब्रह्म) में उसकी आनन्द और सत्ता की लीला अनवरत रूप से चलती है परन्तु अपने मूल स्वरूप में वह इस चतुष्पाद विभूति से भी परे कूटस्थ अक्षर कहलाता है। कूटस्थ अक्षर से भी परे उत्तम पुरूष/अक्षरातीत का अत्यन्त तेजोमयी, प्रेममयी और आनन्दमयी रूप है जो नित्य युवा है, पूर्णकाम है, स्वयंभू है और अखण्ड आनन्द का मूल स्रोत है। इस सम्पूर्ण रहस्य को तारतम वाणी में बहुत सरल ढंग से समझाया गया है।
हद पार वेहद है, बेहद पार अक्षर ।
अक्षर पार वतन है, जागिए इन घर ।। प्र. हि. 31/16
अर्थात् इस नश्वर कालमाया के ब्रह्माण्ड (जिसका स्वामी क्षर पुरूष आदिनारायण है) से परे बेहद योगमाया का ब्रह्माण्ड है (जिसका स्वामी अक्षर पुरूष है) इस योगमाया से भी अक्षर ब्रह्म का कूटस्थ रूप है और इस अविनाशी कूटस्थ अक्षर ब्रह्म से परे अक्षरातीत परब्रह्म का आनन्दमयी परमधाम है।
इस प्रकार क्षर, अक्षर और उत्तम पुरूष/अक्षरातीत की व्याख्या निजानन्द दर्शन के प्रकाश में ही सम्भव है जिसे हम सभी तारतम वाणी/कुलजम स्वरुप अथवा स्वरुप साहेब कहते हैं।
परब्रह्म कहां है और कैसा है ?
सम्पूर्ण अध्यात्म जगत परब्रह्म को सर्वज्ञ और अखण्ड मानता है और यह वास्तविकता भी है, किन्तु सर्वज्ञ और अखण्ड सिद्ध करने के लिये परब्रह्म को इस सृष्टि के कण-कण में व्यापक तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म मानना पड़ता है, यहीं से निराकारवाद का सिद्धान्त लागू हो जाता है। इस मायावी सृष्टि के कण-कण में सच्चिदानन्द परब्रह्म के सर्व व्यापक मानने पर ये प्रश्न उपस्थित होते हैं।
- यह सम्पूर्ण जड़ जगत चेतन, अखण्ड और अविनाशी होना चाहिए।
- इस जगत् के कण-कण से लौह अग्निवत् ब्रह्मरूपता की झलक मिलनी चाहिये।
- प्रत्येक प्राणी पूर्ण ज्ञानवान होना चाहिए। न तो धर्मशास्त्रों की आवश्यकता होनी चाहिए और न पढ़ने-पढ़ाने की।
- प्रत्येक प्राणी तथा प्रत्येक कण आनन्द से परिपूर्ण होना चाहिये, जबकि व्यवहार में तो यही दिखता है कि प्रत्येक प्राणी किसी न किसी रूप में दुःखी हैं।
- स्वर्ग, वैकुण्ठ तथा नरक में किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं होना चाहिए, क्योंकि ब्रह्म अखण्ड और एक रस है।
- किसी भी प्राणी के अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार आदि दुर्गुण नहीं होना चाहिए।
- अविनाशी परब्रह्म के कण-कण में व्यापक होने पर इस दुनियां में जन्म तथा मृत्यु का चक्र नहीं चलना चाहिये।
- मल-मूत्र जैसी वस्तुओं से भी हमें घृणा के स्थान पर ब्रह्मरूपता की अनुभूति होनी चाहिए।
- जगत के ब्रह्मरूप होने पर भक्ति और मुक्ति जैसे शब्दों की आवश्यकता भी नहीं होनी चाहिये।
- ब्रह्मरूपता वाली सृष्टि में जगत की उत्पत्ति एवं प्रलय की बात मात्र काल्पनिक होनी चाहिये।
(इस सम्बन्ध में विशेष विवेचना के लिये कृपया बोध मञ्जरी के अध्याय 4 का अवलोकन करें)[3]
जिस प्रकार अंधेरे के कण-कण में सूर्य व्यापक नहीं हो सकता, उसी प्रकार इस मायावी जगत के कण-कण में सच्चिदानन्द परब्रह्म का वह अखण्ड प्रकाशमान (नूरमयी) स्वरूप व्यापक नहीं हो सकता। इस जगत के कण-कण में उसकी सत्ता अवश्य है, किन्तु स्वरूप नहीं।
परब्रह्म सर्व व्यापक अवश्य है, किन्तु अपने निजधाम में जहां के कण-कण में अनन्त सूर्यों का प्रकाश है, जहां अनन्त आनन्द है। इस प्रकार का वर्णन ऋग्वेद में किया गया है।
यत्र ज्योतिः अजस्रं, यस्मिन् लोके स्वर्हितम्।
तस्मिन् मां धेहि पवमान अमृते लोके अक्षित इन्द्राय इन्दो परिस्रव।। ऋग्वेद ९/११३/७
गीता में भी कहा गया है कि उस ब्रह्मधाम में न तो सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्रमा और न अग्नि ही। जहां जाने पर पुनः लौटना नहीं पड़ता वह मेरा परमधाम है।
न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः।
यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद् धाम परमं मम्।। गीता
यजुर्वेद का कथन है कि प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मैं जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है।
वेदाहमेतम् पुरूषं महान्तं आदित्य वर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यःपन्था विद्यतेऽयनाय।। यजुर्वेद३१/१८
इस कथन से जहां परब्रह्म का स्वरूप मायावी जगत से सर्वथा परे सिद्ध होता है, वहीं परमात्मा के रूप से रहित कहे जाने की भी बात का खण्डन होता है।
इसी प्रकार ब्राह्मण ग्रन्थों का भी कथन है कि हे परब्रह्म! मुझे इस असत्य (जगत) से सत्य (अपने अखण्ड स्वरूप) की ओर ले चलो।
तमस् (प्रकृति के अन्धकार) से प्रकाश (निजधाम) की ओर ले चलो।
मृत्यु (लौकिक जगत) से मुझे अमरत्व (ब्रह्मधाम) में ले चलो।
असतो मा सद् गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमयेति। शतपथ ब्रा. १४/३/१/३॰
यदि सच्चिदानन्द परब्रह्म का स्वरूप इस नश्वर जगत के कण-कण में व्यापक होता तो वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों का कथन इस प्रकार नहीं होता। ब्रह्म इस सृष्टि का निमित्त कारण है, प्रकृति उपादान कारण है। जिस प्रकार निमित्त कारण कुम्भकार उपादान कारण मिट्टी से बने हुए घड़े के कण में बैठा हुआ नहीं होता है, बल्कि घड़े के कण-कण से उसकी कारीगरी दिखती है, उसी प्रकार निमित्त कारण ब्रह्म इस सृष्टि के कण-कण में निज स्वरूप से नहीं है बल्कि इस जगत के कण-कण में उसकी सत्ता समायी हुई है।
मुण्डकोपनिषद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दिव्य ब्रह्मपुर में परब्रह्म है -
दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येषः व्योम्नि आत्मा प्रतिष्ठितः। मु. उ. २/२/७
अविनाशी ब्रह्म के चार पाद हैं। वेद के कथनानुसार- यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्म के चौथे पाद (अव्याकृत) द्वारा बना है। इसके तीनों पाद चेतन, प्रकाशमय तथा अखण्ड हैं। परब्रह्म का स्वरूप इन तीनों पादों के भी परे है, जिसे
परमधाम (दिव्य ब्रह्मपुर) कहते हैं।
चतुष्पाद् भूत्वा भोग्यः सर्वमादत् भोजनम्। अथर्ववेद १॰/८/२१
पुरूष एवेदं सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम्।
पादोस्य सर्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।। ऋग्वेद १॰/९॰/२
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरूषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः। यजुर्वेद ३१/४
परब्रह्म के स्वरूप के सम्बन्ध में विद्वत वर्ग में दो प्रकार की विचार धारायें हैं। पहली विचार धारा के अनुसार-परब्रह्म साकार है और श्री राम, श्री कृष्ण, शिव, विष्णु, नारायण आदि के रूप में उनकी पूजा- आराधना की जाती है।
दूसरी विचारधारा परब्रह्म को निराकार मानती है। इस विचार धारा के अनुसार-परब्रह्म सर्वव्यापक निर्गुण और निराकार है तथा ध्यान द्वारा उसका अनुभव किया जाता है।
किन्तु वास्तविक सत्य क्या है ? इसके लिये तारतम्य ज्ञान की दृष्टि से धर्मग्रन्थों के कथनों का गहन एवं निष्पक्ष चिन्तन आवश्यक है। प्रथम विचार धारा तो मात्र पौराणिक है, उसका कथन वेदों, 11 उपनिषदों एवं दर्शन शास्त्रों के अनुकूल नहीं है।
वेद के गहन अभिप्राय को न समझने के कारण दूसरी विचारधारा में भी कुछ भ्रान्तियां हैं। यदि परब्रह्म को पंचभौतिक एवं तीनों गुणों से रहित होने के कारण निर्गुण कहा जाय तथा इस सृष्टि में सत्ता से कण-कण में व्यापक एवं चेतन निजधाम (ब्रह्मपुर) में स्वरूप से सर्व व्यापक कहा जाय तो ठीक है, किन्तु निराकार का अभिप्राय रूप से रहित कहना उचित नहीं है। जब वेद का कथन है कि परब्रह्म सूर्य के समान प्रकाशमान है, तो उसे रूप रहित कैसे कहा जा सकता है ? वस्तुतः निराकार का अर्थ होता है, आकार से रहित, न कि रूप से रहित। वेद के अनेक मन्त्रों में उसे अत्यधिक सुन्दर तथा तेजोमय कहा गया है, किन्तु वह स्वरूप पघचभूतात्मक रूप से सर्वथा भिन्न है एवं नस, नाड़ी, रक्त, मांस से रहित है।
1. हे ब्रह्म! तुम शुक्र (नूर) हो, अति देदीप्यमान हो। अथर्ववेद 17/1/20
शुक्रोऽऽसि भ्राजोऽऽसि। अथर्ववेद १७/१/२॰
2. हे ब्रह्म! तुम कान्ति हो, कान्तिमान हो, अति मनोहर हो। अथर्ववेद 17/1/21
रूचिरसि रोचोऽऽसि । अथर्ववेद १७/१/२१
3. हे ब्रह्म! आप प्रकाश स्वरूप हो, मैं भी प्रकाशित होऊं। आप दीप्तिमान हैं, मैं भी दीप्तिमान होऊं। आप तेज स्वरूप हैं, मुझमें भी तेज को धारण कराइये। अथर्व 7/89/4
एधोऽस्येधिषीय समिदासिसमेधि षीय। तेजोऽसि तेजो मयि धेहि।। अथर्ववेद ७/८९/४
4. वह ब्रह्म नूरमयी ज्योति वाला, अद्भुत ज्योति वाला, विनाश रहित सत्य ज्योति वाला और स्वयं ज्योति से परिपूर्ण है। यजुर्वेद 17/80
शुक्रज्योतिश्च चित्रज्योतिश्च सत्यज्योतिश्च ज्योतिष्मांश्च। यजुर्वेद १७/८॰
सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश की अनुभूति होने के कारण ब्रह्म की किसी आकृति की धारणा मनःमस्तिष्क में नहीं बन पाती, किन्तु यह तथ्य हमेशा ही हमें ध्यान में रखना चाहिए कि प्रकाश का मूल स्रोत कोई न कोई अलौकिक स्वरूप अवश्य रखता है इस सम्बन्ध में वेद का यह कथन विशेष रूप से देखने योग्य है -
तमेव विद्वान न विभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम्। अथर्व १॰/८/४४
‘‘उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरूण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरूष मृत्यु से नहीं डरता है।’’ अथर्ववेद 10/8/44
इस सम्बन्ध में विशेष विवेचना के लिये कृपया ‘सत्यांजलि ग्रन्थ’[4] का अवलोकन करें।
[5]श्री प्राणनाथ जी का प्रकटन:-
संक्षिप्त लीला वृत्तान्त - गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण जी कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं धर्म की वृद्धि के लिए अवतरित होता हूँ। उनका यह कथन संसार के कल्याण के लिए अवतरित होने वाले महापुरुषों की भावना से सम्बन्धित है, परन्तु परब्रह्म अक्षरातीत की लीला इससे भिन्न है। वेद के कथनानुसार- सच्चिदानन्द परब्रह्म का अवतार होना सम्भव नहीं है। वेद, गीता, उपनिषदों में वर्णित कूटस्थ, ध्रुव (अखण्ड), परिणाम से रहित ब्रह्म कभी भी गर्भ में नहीं आ सकता। पंचभौतिक तन के जन्म लेने के पश्चात् मात्र परब्रह्म की आवेश और जोश की शक्ति का ही उसमें प्रकटन हो सकता है। परब्रह्म श्री प्राणनाथ जी तथा उनकी आत्माओं का निज स्वरूप उस अनन्त परमधाम में अखण्ड रूप से विद्यमान है।
यदि उनका आवेश स्वरूप इस सांसारिक नश्वर तन में प्रकट होता है, तो उसे ही "परब्रह्म के प्रकटन" की संज्ञा दी जाती है।
परमधाम से ब्रह्मात्माओं का इस नश्वर संसार में प्रकटन हुआ। उनके साथ अक्षरातीत परब्रह्म श्री प्राणनाथ भी आये, और उन्होंने श्री देवचन्द्र और श्री मिहिरराज नामक दो तनों में विराजमान होकर अलौकिक लीला की।
धर्मग्रन्थों के कथनानुसार कलाप ग्राम निवासी देवापि के जीव ने वि.सं. १६३८ में आश्विन मास को शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को मारवाड़ उमरकोट गाँव में श्री देवचन्द्र के रूप में जन्म लिया। इनके पिता का नाम श्री मत्तु मेहता तथा माता का नाम कुँवर बाई था। परमधाम की श्यामा जी (परब्रह्म के आनन्द अंग) ने इनके तन में प्रवेश किया।
जब श्री देवचन्द्र जी की उम्र मात्र ११ वर्ष की थी, तभी से उनके मन में यह जानने की प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, तथा मेरी आत्मा का प्रियतम कौन है? इन प्रश्नों का समाधान पाने के लिये उन्होंने बहुत प्रयास किया, किन्तु स्पष्ट उत्तर नहीं मिल पाया। कुछ समय के पश्चात उमरकोट से कच्छ के लिये जाने वाली बारात के पीछे-पीछे चलते समय परब्रह्म ने दर्शन देकर यथेष्ठ स्थान पर पहुँचा दिया, किन्तु वे उनको पहचान नहीं पाये।
कच्छ में अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये वे अनेक ज्ञानियों, सन्यासियों, वैरागियों आदि के पास गये। उनके बताये हुए मार्ग के अनुसार उन्होंने साधना भी की, लेकिन उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। अन्त में राधा- वल्लभ मत के अनुयायी हरिदास जी के सान्निध्य में रहकर वे सेवा-ध्यान करने लगे। हरिदास जी ने उन्हें दीक्षा भी दे दी। २६ वर्ष की उम्र में ध्यान द्वारा दूसरी बार उन्हें परब्रह्म का साक्षात्कार हुआ।
इसके पश्चात् हरिदास जी की प्रेरणा से वे नवतनपुरी (जामनगर) आकर कान्ह जी भट्ट से श्रीमद्भागवत् की कथा सुनने लगे। जब उनकी उम्र ४० वर्ष की हो गयी, तो श्याम जी के मन्दिर में कथा सुनते समय साक्षात् परब्रह्म ने उन्हें दर्शन दिया। परब्रह्म ने उन्हें परमधाम के इश्क-रब्द, व्रज एवं रास लीला, तथा जागनी ब्रह्रह्माण्ड की सारी बातें बतायी और उनके धाम हृदय में आवेश स्वरूप से विराजमान हो गये।
इस घटना के पश्चात् श्री देवचन्द्र जी "निजानन्द स्वामी" के रूप में प्रसिद्ध हो गये तथा उनके अलौकिक ब्रह्मज्ञान की चर्चा सुनने के लिये जनसमूह उमड़ पड़ा। उनके द्वारा दिये हुए तारतम्य ज्ञान का अनुसरण करने वाले सुन्दरसाथ कहलाये। सुन्दरसाथ के समूह में हरिदास जी भी थे, जिन्होंने पहले श्री देवचन्द्र जी को मन्त्र दीक्षा दी थी।
पूर्व वर्णित धर्मग्रन्थों के कथनानुसार राजा मरू ने जामनगर राज्य के मन्त्री (दीवान) श्री केशव ठाकुर माता धनबाई के सुपुत्र श्री मिहिरराज के रूप में जन्म लिया। इनका जन्म वि.सं. १६७५ में भादो मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हुआ था। श्री मिहिरराज के तन में परमधाम की इन्द्रावती (इन्दिरा) आत्मा ने प्रवेश किया, जिन्हें बाद में "महामति" की शोभा मिली, तथा इनके धाम हृदय में विराजमान होकर परब्रह्म ने लीला की।
श्री मिहिरराज लगभग १२ वर्ष की उम्र में सद्गुरू धनी श्री देवचन्द्र जी की शरण में आये तथा उनसे तारतम ज्ञान ग्रहण किया। श्री निजानन्द स्वामी (सद्गुरू धनी श्री देवचन्द्र जी) ने उन्हें देखते ही पहचान लिया कि भविष्य में परब्रह्म की लीला इसी तन के द्वारा होगी।
श्री मिहिरराज बचपन से ही इतनी अधिक अलौकिक प्रतिभा के स्वामी रहे हैं कि जामनगर के भागवत् के सबसे बड़े विद्वान कान्ह जी भट्ट उनके इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाये कि महाप्रलय के पश्चात परब्रह्म का स्वरूप कहाँ रहता है? भट्ट जी ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि इसका उत्तर ब्रह्मा जी के पास भी नहीं है।
कुछ समय के पश्चात् परमधाम के दर्शन हेतु श्री मिहिरराज जी ने इतनी कठोर साधना की कि उनका शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया, लेकिन उन्होंने परमधाम की एक झलक पा ही ली। तदन्तर श्री निजानन्द स्वामी ने उन्हें सेवा कार्य हेतु अरब भेज दिया, जहाँ वे लगभग ५ वर्षों तक रहे। वापस आने पर कुछ कारणवश उन्हें श्री निजानन्द स्वामी का सान्निध्य प्राप्त न हो सका।
वि.सं. १७१२ में सद्गुरू धनी श्री देवचन्द्र जी का धामगमन (देह त्याग) हो गया। इसके पूर्व उन्होंने श्री मिहिरराज जी को बुलाकर भविष्य की सारी बातें बता दी कि भविष्य में जागनी लीला तुम्हारे तन से होगी। सद्गुरू धनी श्री देवचन्द्र जी के धामगमन के पश्चात् श्री मिहिरराज ने धर्म प्रचार का उत्तरदायित्व सम्भाला।
श्री मिहिरराज जी ने आत्म-जाग्रति हेतु सब सुन्दरसाथ को एकत्रित करने की योजना बनाई, किन्तु जामनगर के वजीर के यहाँ झूठी चुगली के कारण हब्सा में नजरबन्द होना पड़ा। यहाँ अपने प्रियतम के विरह में तड़प-तड़प कर उन्होंने अपने शरीर को मात्र हड्डियों का ढाँचा बना दिया। अन्ततोगत्वा सचिचदानन्द परब्रह्म को उन्हें दर्शन देकर उनके धाम हृदय में विराजमान होना पड़ा। अब सबने उन्हें प्राणनाथ, धाम धनी, श्री राज, श्री जी, आदि कहना शुरू कर दिया, क्योंकि इन शब्दों का अर्थ होता है अक्षरातीत। उपनिषदों का यह कथन "ब्रह्मविदो ब्रह्मोव भवति" भी उस समय पूर्ण रूप से सार्थक हो उठा।
अब उनके तन से परब्रह्म के आवेश स्वरूप द्वारा "श्रीमुखवाणी" का अवतरण होना शुरू हो गया। सबसे पहले "रास" ग्रन्थ उतरा, जिसमें महारास की अखण्ड लीला तथा परब्रह्म द्वारा धारण किये गये युगल स्वरूप की शोभा का वर्णन है। इसके पश्चात् "प्रकाश" और "खटऋतु" ग्रन्थ उतरा। परमधाम की आत्माओं की जागनी हेतु समय-समय पर भिन्न-भिन्न स्थानों पर आवश्यकतानुसार वाणी उतरती रही। खिलवत, परिक्रमा, सागर, श्रृंगार, तथा सिन्धी के ग्रन्थ में परमधाम का आनन्द उड़ेला गया है। सनंध, खुलासा, मारफत सागर, तथा कयामतनामा में कुरआन के हकीकत एवं मारिफत के भेदों को स्पष्ट किया गया है, जिससे शरीयत के नाम पर होने वाले हिन्दू-मुस्लिम के विरोध को मिटाकर शान्ति का मार्ग प्रशस्त किया जा सके। किरन्तन ग्रन्थ सम्पूर्ण वाणी का संक्षिप्त रूप है, जिसमें वेद - वेदान्त तथा भागवत आदि के गूढ़ एवं अनसुलझे प्रश्नों का समाधान किया गया है। कलश ग्रन्थ में भी हिन्दू धर्मग्रन्थों के रहस्यों को बहुत अच्छी तरह से प्रकट किया गया है।
वस्तुतः श्री प्राणनाथ जी के मुखारविन्द से अवतरित होने वाली ब्रह्मवाणी की महत्ता को वही समझ सकता है, जो सम्पूर्ण वेद-वेदांग तथा कतेब ग्रन्थों में डुबकी लगाते-लगाते थक गया हो, किन्तु यथार्थ सत्य को जानने का सच्चा जिज्ञासु हो।
अब श्री प्राणनाथ जी परमधाम की आत्माओं को जाग्रत करने हेतु देश-विदेश में भ्रमण करने लगे। यात्रा की कठिनाइयाँ होते हुए भी भारतवर्ष के कई प्रान्त गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, सिन्ध प्रान्त, तथा अरब देशों में भी उन्होंने परमधाम के अलौकिक ब्रह्मज्ञान का रस बरसाया।
सर्वप्रथम वि.सं. १७१८ में उन्होंने जूनागढ़ के शास्त्रार्थ महारथी "हरजी व्यास" को अपने अलौकिक ज्ञान से नतमस्तक किया। भागवत् के इस एक प्रश्न का उत्तर हरजी व्यास नहीं दे सके थे कि अक्षर ब्रह्म का वह अखण्ड निवास (महल) कहाँ है?
इसके पश्चात् श्री प्राणनाथ जी दीप बन्दर, कच्छ, मंडई, कपाइये, भोजनगर में आत्माओं को जाग्रत करते हुए ठट्ठानगर आये, जहाँ कबीर पन्थ के आचार्य चिन्तामणि जी शिष्यों सहित जाग्रत हुए, जिनके एक हजार शिष्य थे। इसके पश्चात् सेठ लक्ष्मण दास भी जाग्रत हुए, जिनका ९९ जहाजों से व्यापार हुआ करता था। ये ही बाद में श्री लालदास जी के रूप में प्रसिद्ध हुए।
इसके पश्चात् श्री जी (श्री प्राणनाथ जी) अरब देशों में गये, जहाँ उन्होंने मस्कत बन्दर तथा अबासी बन्दर में सैकड़ों आत्माओं को जाग्रत किया। अबासी बन्दर में धन, मांस, और शराब में डूबे रहने वाले भैरव ठक्कर जैसे व्यक्ति ने भी श्री जी की कृपा दृष्टि से परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया।
वि.सं. १७२८ में श्री प्राणनाथ जी अरब से वापस भारत ठट्ठानगर (वर्तमान कराची) आ गये। इसके पश्चात् सूरत में सत्रह माह रहे, जिसमें श्याम भाई जैसे वेदान्त के आचार्य एवं गोविन्दजी व्यास सहित सैंकड़ों लोगों ने अपनी अध्यात्मिक प्यास बुझायी। सूरत से ही बहुत से सुन्दरसाथ ने अपना घर-द्वार हमेशा के लिये छोड़ दिया और श्री प्राणनाथ जी के साथ जागनी अभियान पर निकल पड़े।
सूरत से सिद्धपुर होते हुए श्री प्राणनाथ जी मेड़ता पहुँचे। वहाँ मुल्ला के मुख से बाँग सुनकर उन्होंने हिन्दू- मुस्लिम मतों के एकीकरण करने का दृढ़ संकल्प किया। औरंगज़ेब को कुरआन के हकीकत और मारिफत के ज्ञान द्वारा शरीयत से दूर करने के उद्देश्य से वे दिल्ली पहुँचे, किन्तु भेंट न होने के कारण वार्ता न हो सकी। पुनः दिल्ली से वि.सं. १७३५ में वे हरिद्वार के महाकुम्भ में सम्मिलित हुए, जहाँ वैष्णवों के चारों सम्प्रदायों, दश नाम सन्यास मत, तथा षट् दर्शन के आचार्यों के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ। जिसमें सभी ने हार मानकर उन्हें "श्री विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक" मानकर उनके नाम की ध्वजा फहराई तथा बुद्ध जी का शाका भी प्रचलित किया।
हरिद्वार से श्री जी पुनः दिल्ली आये और औरंगज़ेब को कियामत के जाहिर होने का सन्देश भिजवाने का प्रयास किया गया। दिल्ली से अनूपशहर आते समय सनन्ध की वाणी भी उतरी। दिल्ली में १२ सुन्दरसाथ को औरंगज़ेब के पास भेजा, किन्तु बादशाह के अधिकारियों ने उन १२ सुन्दरसाथ के साथ बहुत ही कष्टदायक व्यवहार किया, जबकि बादशाह ने उन्हें सम्मानपूर्वक रखने को कहा था।
इसके पश्चात् श्री प्राणनाथ जी ने औरंगज़ेब के अत्याचार का विरोध करने के लिये उदयपुर, औरंगाबाद, रामनगर, आदि के राजाओं को जाग्रत करने का प्रयास किया, किन्तु परमधाम का अँकुर न होने के कारण कोई जाग्रत न हो सका। निदान श्री जी पद्मावती पुरी धाम पन्ना आये, जहाँ महाराजा छत्रसाल जी ने उन्हें पूर्णब्रह्म का स्वरूप मानकर अपना तन, मन, धन उन पर न्योछावर कर दिया।
छत्रसाल जी ने महारानी के साथ श्री जी की पालकी को स्वयं उठाकर महल में पधराया। चौपड़े की हवेली में उन्होंने सिंहासन पर बाई जी के साथ बैठाकर साक्षात् पूर्ण ब्रह्म के रूप में मानकर श्री जी की आरती उतारी और सबके सामने स्पष्ट रूप से कह दिया कि जो कोई भी इन्हें अक्षरातीत मानने में संशय करता है, वह परमधाम की ब्रह्मसृष्टि ही नहीं है।
छत्रसाल जी की ऐसी निष्ठा देखकर श्री प्राणनाथ जी ने उन्हें अपने हुक्म की शक्ति दे दी तथा स्वयं माथे पर तिलक करके "महाराजा" घोषित कर दिया। यह श्री प्राणनाथ जी की कृपा का ही फल था कि ५२ लड़ाइयों में वे हमेशा ही विजयी रहे और पन्ना की धरती हीरा उगलने लगी।
महाराजा छत्रसाल जी के चाचा बलदीवान सहित कुछ लोगों के मन में श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप के सम्बन्ध में संशय था, जिसे दूर करने के लिये कुरआन और वेद-शास्त्रों के विद्वान बुलाये गये। महोबा के काज़ी अब्दुल रसूल से श्री जी की कुरआन पर चर्चा हुई। पाँच तरह की पैदाइश के प्रश्न के सम्बन्ध में काज़ी ने हार मानकर श्री प्राणनाथ जी के चरणों में प्रणाम किया और कुरआन को सिर पर रखकर यह कसम खाते हुए कहा कि ये श्री प्राणनाथ जी ही कियामत के समय में आने वाले "आखरूल जमां इमाम महदी" (खुदा) हैं। इसी प्रकार सुप्रसिद्ध विद्वान बद्रीदास जी ने भी शास्त्रार्थ में हार मानकर उन्हें "श्री विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक स्वरूप" माना।
लगभग दस वर्ष तक श्री प्राणनाथ जी की कृपा से पन्ना जी में परमधाम का आनन्द बरसता रहा। सबने यही माना कि हमारे मध्य में परब्रह्म की लीला चल रही है। आज भी श्री पन्ना जी के गुम्मट मन्दिर में श्री महामति जी ध्यानावस्था में विराजमान हैं।
(विस्तृत वर्णन पढ़ने या सुनने के लिए "श्री बीतक"[6][7] या "दोपहर का सूरज"[8][9] का अवलोकन करें)
References
edit- ^ https://spjin.org/
- ^ chrome-extension://efaidnbmnnnibpcajpcglclefindmkaj/https://ignca.gov.in/Asi_data/279.pdf
- ^ chrome-extension://efaidnbmnnnibpcajpcglclefindmkaj/https://www.spjin.org/assets/uploads/books/bodh_manjari.pdf
- ^ chrome-extension://efaidnbmnnnibpcajpcglclefindmkaj/https://www.spjin.org/assets/uploads/books/bodh_manjari.pdf
- ^ chrome-extension://efaidnbmnnnibpcajpcglclefindmkaj/https://spjin.org/assets/files/shri_prannath_ji_ka_prakatan.pdf
- ^ chrome-extension://efaidnbmnnnibpcajpcglclefindmkaj/https://www.spjin.org/assets/files/beetak_tika.pdf
- ^ "बीतक चर्चा (दिल्ली) || Beetak Charcha, Delhi".
- ^ chrome-extension://efaidnbmnnnibpcajpcglclefindmkaj/https://www.spjin.org/assets/uploads/books/dopahar_ka_sooraj.pdf
- ^ "दोपहर का सूरज || Dopeher ka Sooraj".