यम - यमी संवाद

भगवान सुर्य का परिवार–पत्नी, पुत्र, तथा पुत्रीओं के नाम

भगवान् सुर्य की दस सन्तानें हैं। विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा (अश्विनी) नामक पत्नी से वैवस्वत मनु, यम, यमी (यमुना), अश्विनीकुमारद्वय और रेवन्त तथा छाया से शनि, तपती, विष्टि (भद्रा) और सावर्णि मनु हुये।

भगवान् सूर्य के परिवार की यह कथा पुराणों आदि में अनेक प्रकार से सूक्ष्म एवं विस्तार से आयी है, उसका सारांश यहाँ प्रस्तुत है –

विश्वकर्मा (त्वष्टा) – की पुत्री संज्ञा (त्वाष्ट्री) – से जब सूर्य का विवाह हुआ तब अपनी प्रथम तीन सन्तानों वैवस्वत मनु, यम तथा यमी (यमुना) – की उत्पत्ति के बाद उनके तेज को न सह सकने के कारण संज्ञा अपने ही रूप-आकृति तथा वर्णवाली अपनी छाया को वहाँ स्थापित कर अपने पिता के घर होती हुई ‘उत्तरकुरु’ में जाकर छिपकर वडवा (अश्वा) – का रूप धारण कर अपनी शक्त्ति वृद्धि के लिये कठोर तप करने लगी। इधर सूर्य ने छाया को ही पत्नी समझ तथा उसमें उन्हें सावर्णि मनु, शनि, तपती, तथा विष्टि (भद्रा) – ये चार सन्तानें हुईं। जिन्हें वह अधिक प्यार करती, किन्तु संज्ञा की सन्तानों वैवस्वत मनु तथा यम एवं यमी का निरन्तर तिरस्कार करती रहती।

माता छाया के तिरस्कार से दुःखी होकर एक दिन यम ने पिता सूर्य से कहा – तात! यह छाया हम लोगों की माता नहीं हो सकती; कयोंकि यह हमारी सदा उपेक्षा, ताड़न करती है और सावर्णि मनु आदि को अधिक प्यार करती है। यहाँ तक कि उसने मुझे शाप भी दे डाला है। सन्तान माता का कितना ही अनिष्ट करे, किन्तु वह अपनी सन्तान को कभी शाप नहीं दे सकती। यम की बातें सुनकर कुपित हुये सूर्य ने छाया से ऐसे व्यवहार का कारण पूछा और कहा – सच-सच बताओ तुम कौन हो ? यह सुनकर छाया भयभीत हो गयी और उसने सारा रहस्य प्रकट कर दिया कि मैं संज्ञा नहीं, बल्कि उसकी छाया हूँ।

सूर्य तत्काल संज्ञा को खोजते हुये विश्वकर्मा के घर पहुँचे। उन्होंने बताया कि भगवान् ! आपका तेज सहन न कर सकने के कारण संज्ञा अश्वा (घोड़ी) – का रूप धारण कर उत्तरकुरु में तपस्या कर रही है। तब विश्वकर्मा ने सूर्य की इच्छा पर उनके तेज को खरादकर कम कर दिया। अब सौम्य शक्त्ति से सम्पन्न भगवान् सूर्य अश्वरूप से वडवा (संज्ञा-अश्विनी)- के पास उससे मिले। वडवा ने पर पुरुष के स्पर्श की आशङ्का से सूर्य का तेज अपने नासा छिद्रों से बाहर फेंक दिया। उसी से दोनों अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति हुई, जो देवताओं के वैद्य हुये। नासों से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम नासत्य भी है। तेज के अन्तिम अंश से रेवन्त नामक पुत्र हुआ। इस प्रकार भगवान् सूर्य का विशाल परिवार यथास्थान प्रतिष्ठित हो गया। यथा-वैवस्वत मनु वर्तमान (सातवें) मन्वन्तर के अधिपति हैं। यम यमराज एवं धर्मराज के रूप में जीवों के शुभाशुभ कर्मों के फलों को देने वाले हैं। यमी यमुना नदी के रूप में जीवों के उद्धार में लगी हैं।

मृत्‍यु के देव यम

यम संस्कृत [संज्ञा पुल्लिंग] 1. मृत्यु के देवता ; यमराज 2. जुड़वाँ बच्चे ; यमज 3. संयम 4. शनि 5. कौआ 6. विष्णु।

यम - संज्ञा पुलिंग [संस्कृत] 1. एक साथ उत्पन्न बच्चों का जोड़ा । यमज । 2. भारतीय आर्यों के एक प्रसिद्ध देवता जो दक्षिण दिशा के दिक् पाल कहे जाते हैं और आजकल मृत्यु के देवता माने जाते हैं । विशेष - वैदिक काम में यम और यमी दोनों देवता, ऋषि और मंत्रकर्ता माने जाते थे और 'यम' को लोग 'मृत्यु' से भिन्न मानते थे । पर पीछे से मय ही प्राणियों को मारनेवाले अथवा इस शरीर में से प्राण निकालनेवाले माने जाने लगे । वैदिक काल में यज्ञों में यम की भी पूजा होती थी और उन्हे हवि दिया जाता था । उन दिनों वे मृत पितरों के अधिपति तथा मरनेवाले लोगों को आश्रय देनेवाला माने जाते थे । तब से अब तक इनका एक अलग लोक माना जाता है, जो 'यमलोक' कहलाता है । हिदुओं का विश्वास है कि मनुष्य मरने पर सब से पहले यमलोक में जाता है और वहाँ यमराज के सामने उपस्थित किया जाता है । वही उसकी शुभ और अशुभ कृत्यों का विचार करके उसे स्वर्ग या नरक में भेजते हैं । ये धर्मपूर्वक विचार करते हैं, इसीलिये धर्मराज भी कहलाते हैं । यह भी माना जाता है कि मृत्यु के समय यम के दूत ही आत्मा को लेने के लिये आते हैं । स्मृतियों में चौदह यमों के नाम आए हैं, जो इस प्रकार हैं - यम, धर्मराज, मृत्यु, अंतक, वैवस्वत, काल, सर्वभूत- क्षय, उदुंबर, दघ्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त । तर्पण में इनमें से प्रत्यक के नाम तीन तीन अंजलि जल दिया जाता है । मार्कडेयपुरणा में लिखा है कि जब विश्वकर्मा की कन्या संज्ञा ने अपने पति सूर्य को देखकर भय से आँखें बंद कर ली, तब सूर्य ने क्रुद्ध होक उसे शाप दिया कि जाओ, तुम्हें जो पुत्र होगा, वह लोगों का संयमन करनेवाला (उनके प्राण लेनेवाला) होगा । जब इसपर संज्ञा ने उनकी और चंचल दृष्टि से देखा, तब फिर उन्होने कहा कि तुम्हें जो कन्या होगी, वह इसी प्रकार चंचलतापूर्वक नदी के रूप में बहा करेगी । पुत्र तो यही यम हुए और कन्या यमी हुई, जो बाद में यमुना के नाम से प्रसिद्ध हुई । कहा जाता है कि यमी और यम दोनों यमज थे । यम का वाहन भैंसा माना जाता है । पर्यावाची - पितृपति । कृतांत । शमन । काल । दंडधर । श्राद्धदेव । धर्म । जीवितेश । महिपध्वज । महिषवाहन । शीर्णपाद । हरि । कर्मकर । 2. मन, इंद्रिय आदि के वश या रोक में रखना । निग्रह । 4. चित को धर्म में स्थिर रखनेवाले कर्मों का साधन । विशेष - मनु के अनुसार शरीरसाधन के साथ साथ इनका पालन नित्य कर्तव्य है । मनु ने आहिंसा, सत्यवचन, ब्रह्मचर्य, अकल्कता और अस्तेय ये पाँच यम कहे हैं । पर पारस्कर गृह्यसूत्र में तथा और भी दो एक ग्रंथों में इनकी संख्या दस कही गई है और नाम इस प्रकार दिए हैं । - ब्रह्मचर्य, दया, क्षांति, ध्यान, सत्य, अकल्कता, आहिंसा, अस्तेय, माधुर्य और मय । 'यम' योग के आठ आगों में से पहला अंग है । विशेष देशज शब्द देखें 'योग' । 5. कौआ । 6. शनि । 8. विष्णु । 8. वायु । 9. यमज । जोड़ । 1०. दो की संख्या

विशेषण शब्द - [संस्कृत शब्द - यम् (नियंत्रण करना)+अच्] जुड़वाँ। पुल्लिंग 1. जुड़वाँ बच्चे। यमल। 2. उक्त के आधार पर दो की संख्या। 3. रोक। नियंत्रण। 4. अपने ऊपर किया जानेवाला नियंत्रण। 5. कोई बहुत बड़ा धार्मिक या नैतिक कर्तव्य। 6. भारतीय आर्यों के एक प्रसिद् देवता जो सूर्य के पुत्र तथा दक्षिण दिशा के दिकपाल कहे गये हैं, और आजकल मृत्यु के देवता माने जाते है। काल। कृतान्त। 7. चित्त को धर्म में स्थिर रखनेवाले कर्मों का साधन 8. कौआ। 9. शनि। १॰. विष्णु।

आचार्य यास्क जी ने ‘यमी’ का निर्वचन लिंभेद मात्र से ‘यम’ से माना है। ‘यमो यच्छतीत सतः’ अर्थात् यम को यम इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह प्राणियों को नियन्त्रित करता है यम संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ 'संयम' है। भारतीय दर्शन की योग पद्धति में साधक को समाधि या परम ध्यान की स्थिति की ओर ले जाने वाली आठ प्रक्रियाओं में से पहली। यम व्यक्ति के शुद्धिकरण के लिए एक नीतिपरक तैयारी है, इसमें दूसरों को चोट पहुँचाने से बचना, झूठ, चोरी, संभोग एवं कृपणता का त्याग शामिल हैं।

महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र में वर्णित पाँच यम- अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह शान्डिल्य उपनिषद तथा स्वात्माराम द्वारा वर्णित दस यम- अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य क्षमा धृति दया आर्जव मितहार

यम :-चित्त को धर्म में स्थिर करने वाले कर्मों का साधन



यमी संस्कृत [विशेषण] 1. संयमी 2. यम, नियम आदि अष्टांग योग का पालन करने वाला। [संज्ञा स्त्रीलिंग] यम की बहन ; यमुना।

यमी 1 - संज्ञा पुलिंग [संस्कृत] यम की बहन, जो पीछे यमुना नदी होकर बही । यमुना नदी ।

यमी 2 - संज्ञा पुलिंग [संस्कृत यमिन्] संयम करनेवाला मनुष्य । संयमी ।

स्त्रीलिंग [संज्ञा शब्द - यम+ङीष्] यम की बहन, यमुना (नदी) (पुराण)। पुल्लिंग यम नियम आदि का पालन करनेवाला व्यक्ति। संयमी।

स्त्रीलिंग [संज्ञा शब्द - यम+ङीष्] यम की बहन, यमुना (नदी) (पुराण)। पुल्लिंग यम नियम आदि का पालन करनेवाला व्यक्ति। संयमी।


यमी यानि यमुना नदी सूर्य की दूसरी संतान और ज्‍येष्‍ठ पुत्री हैं जो अपनी माता संज्ञा को सूर्यदेव से मिले आशीर्वाद चलते पृथ्‍वी पर नदी के रूप में प्रसिद्ध हुईं। यमी सूर्य की कन्या, जिसकी माता का नाम संज्ञा था। इसके सगे भाई यम अथवा यमराज हैं।

यम तथा यमी एक साथ जुड़वाँ जन्मे थे और यमी का दूसरा नाम यमुना भी है। इन भाई-बहन की कथा विष्णुपुराण (३-२-४) एवं मार्कण्डेय पुराण (७४-४) पुराणों में सविस्तार वर्णित है। ऋग्वेद के अनुसार विवस्वान् के आश्वद्वय यम तथा यमी सरण्यु के गर्भ से हुए थे (१०। १४)। विवस्वान की कन्या यमी ने इंद्र के आदेश से शक्तिपुत्र पराशर के कल्याणार्थ दासराज के घर सत्यवती नाम से जन्म लिया (शिवपुराण)। इनकी कथा कूर्मपुराण में भी पाई जाती है।

यम द्वितीया के संबंध में एक दंतकथा है कि इसी दिन यम अपनी बहन यमी के यहाँ अतिथि होकर गए तो उन्होंने अपने भाई को एक विशेष पकवान (अवध में 'फरा') बनाकर खिलाया। यमराज इसे खाकर अपनी बहन पर परम प्रसन्न हुए और चलते समय उनसे वरदान माँगने को कहा। यमुना ने अंत में यही वर माँगा कि जो भी भाई बहन यमद्वितीया के दिन मेरे तट पर स्नान कर यही पकवान बनाकर खाएँ वे यमराज की यातना से मुक्त रहें।

संज्ञा ने अपने पति सूर्य के तेज के भय से अपनी आंखें बंद कर लीं। इससे सूर्य क्रुद्ध हो गए और शाप दिया। जिससे इसका पुत्र 'यम' सब लोकों का नियमन करने वाला बना। फिर संज्ञा ने सूर्य की ओर चंचल दृष्टि से देखा और सूर्य के शाप से पुत्री यमी नदी के रू प में बहने लगी और यमुना कहलाई।

अश्विनी कुमार (नासत्य-दस्त्र) देवताओं के हैं। रेवन्त निरन्तर भगवान् सूर्य की सेवा में रहते हैं। सूर्य पुत्र शनि ग्रहों में प्रतिष्ठित हैं। सूर्य कन्या तपती का विवाह सोमवंशी अत्यन्त धर्मात्मा राजा संवरण के साथ हुआ, जिन से कुरुवंश के स्थापक राजर्षि कुरु का जन्म हुआ। इन्हीं से कौरवों की उत्पत्ति हुई। सूर्य पुत्री विष्टि भद्रा नाम से नक्षत्र लोक में प्रविष्ट हुई। भद्रा काले वर्ण, लंबे केश, बड़े-बड़े दांत तथा भयंकर रूप वाली कन्या है। भद्रा गधे के मुख और लंबे पूंछ और तीन पैरयुक्त उत्पन्न हुई। शनि की तरह ही इसका स्वभाव भी कड़क बताया गया है। उनके स्वभाव को नियंत्रित करने के लिए ही भगवान ब्रह्मा ने उन्हें काल गणना या पंचांग के एक प्रमुख अंग विष्टि करण में स्थान दिया है।


सावर्णि मनु आठवें मन्वन्तर के अधिपति होंगे। इस प्रकार भगवान् सूर्य का विस्तार अनेक रूपों में हूआ है। वे आरोग्य के अधिदेवता हैं

मण्डल - 10 सूक्त - 10 कुल मन्त्र - 14 ऋषि - यम वैवस्वत , यमी देवता - यम वैवस्वत , यमी वैवस्वती छन्द - त्रिष्टुप्

ऋग्वेद के दशम मण्डल का दशवाॅं सूक्त यम-यमी सूक्त है। इसी सूक्त के मन्त्र कुछ वृध्दि सहित तथा कुछ परिवर्तनपरक अथर्ववेद (18/1/1-16) में दृष्टिपथ होते हैं, अब विचारणीय है कि- यम-यमी क्या है? अर्थात् यम-यमी किसको कहा । इस प्रश्न का उदय उस समय हुआ जब आचार्य सायणादि भाष्यकारों ने यम-यमी को यमल सहोदर भाई-बहन के रूप में प्रस्तुत किया

मन्त्र के अर्थ की दृष्टि से प्रमाण इस सूक्त के ११ वे मन्त्र में भ्राता (भाई) तथा स्वसा (बहन) ये शब्द उल्लिखित हैं। अतः यम और यमी ये भाई-बहन थे ऐसी मान्यता दृढ होती है। तथापि यदि अर्थ का गहन चिन्तन करें, श्लोक का भाव देखें तो भ्राता और स्वसा इन शब्दों के उल्लेख का अर्थ समजता है। ।

यम पद “पुंयोगदाख्यायाम्” सूत्र से स्त्रीवाचक डिष~ प्रत्यय पति- पत्नी भाव में ही लगेगा | सिद्धांत कौमुदी कि बाल्मानोरमा टिका में “पुंयोग” पद कि व्याख्या करते हुए लिखा हैं – “अकुर्वतीमपि भर्तकृतान्** वधबंधादीन् यथा लभते एवं तच्छब्दमपि, इति भाष्यस्वारस्येन जायापत्यात्मकस् यैव पुंयोगस्य विवाक्षित्वात् |” यहा टिकाकर ने भी महाभाष्य के आधार पर पति पत्नी भाव में डिष~ प्रत्यय माना हैं जो नितांत गलत तुकबंदी है

सूर्य यमल यम यमी सृष्टि संरचना में व्यापक अर्थ लिये हुए हैं वेदों की ऋचाएँ व्यापक अर्थो में उद्धृत हैं श्लेष अलंकार और मानवीकरण के प्रयोग भेद से जो शब्द हैं उनका ॠग्वेदीय कालभेद से अर्थ न लगाकर ( कृतयुगे वेदाः) वर्तमान काल खण्ड ज्ञान व्युत्पन्न भेद से व्याख्या वैविध्य है।

सूर्य की रश्मियाँ और वर्णभेद जिस तरह सूर्य रथअश्व छन्द कहलाते हैं उसी तरह सूर्य का परिवार (पत्नि )पुंयोगदाख्यायाम् सूत्र सै 'सूर्या' नहीं संज्ञा नाम्ना है भेदद्वयं संध्या,त्रिकाल संध्या, प्रातः संध्या संज्ञा उपरतिः सांयकाल संध्या अस्ताचल सूर्य का संध्या रूपी छाया भेद है। सूर्य के मानवीयकरण बोध यम यमी सहोदर सहोदरा यम यमी सरण्यु के गर्भ में जुडवां यमल हैं। वहीं व्यापक अर्थों में यम नियमन है प्रकृति में उपस्थित सभी व्यवस्था व्यापार व्यापक नियमन यमी सहोदरा बोध से व्यापक उपरतिः नियमन जो विस्तार ( चंचल स्वभाव) को उद्दत व्यापक उद्देश्यों के लिये सृष्टि विकास विस्तार को क्रियात्मक ढंग से प्रजापति की अवधारणा के बोध से उनकी गर्भावस्था में की गयी व्यवस्था को आधार मानकर स्वबोधसङ्क्रान्तये भाव सै प्रकृति विस्तार के बारे में अपने निकटतम गर्भावस्था से ही उपस्थित पुल्लिंग स्त्रीलिंग मानवीयकरण बोध दृष्टि से दैवीय व्यवस्था के व्यापक विस्तार बोध का परिचय देते लेते हुए प्रकृति के उच्चतम स्तर पर नियमनकर्ता पुल्लिंग यम स्त्रीलिंग यमी, स्त्रीलिंग भाव से शक्ति और सृष्टिस्थित्यन्तकारिणे सृष्टि विस्तार विकास में सक्षम होते हुए निकटतम योग्य पुल्लिंग बोध से प्रकृति की विस्तार ऊर्जा निकटतम नियामक से संवादरत हो रही है।

यम - यमी संवाद-

ओ चित् सखायं सख्या ववृत्यां तिरः पुरू चिदर्णवं जगन्वान् । पितुर्नपातमा दधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः ॥1 ॥

( यमी अपने सहोदर भाई यम से कहती है ) - विस्तृत समुद्र के मध्य द्वीप में आकर , इस निर्जन प्रदेश में मैं तुम्हारा सहवास ( मिलन ) चाहती हूँ , क्योंकि माता की गर्भावस्था से ही तुम मेरे साथी हो । विधाता ने मन ही मन समझा है कि तुम्हारे द्वारा मेरे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा ; वह हमारे पिता का एक श्रेष्ठ नाती होगा ।

ओ इति॑ । चि॒त् । सखा॑यम् । स॒ख्या । व॒वृ॒त्या॒म् । ति॒रः । पु॒रु । चि॒त् । अ॒र्ण॒वम् । ज॒ग॒न्वान् ।

पि॒तुः । नपा॑तम् । आ । द॒धी॒त॒ । वे॒धाः । अधि॑ । क्षमि॑ । प्र॒ऽत॒रम् । दीध्या॑नः ॥१

अत्रास्मिन् सूक्ते वैवस्वतयोर्यमयम्योः संवाद उच्यते । अस्यामृचि यमं प्रति यमी प्रोवाच । "तिरः अन्तर्हितमप्रकाशमानम् । निर्जनप्रदेशमित्यर्थः । “पुरु “चित् बह्वपि विस्तीर्णं च “अर्णवं समुद्रैकदेशमवान्तरद्वीपं “जगन्वान् गतवती यमी । “चित् इति पूजार्थे । पूजितमिष्टम् । श्रेष्ठमित्यर्थः। “सखायं गर्भवासादारभ्य सखीभूतं यमं “सख्या सख्याय स्त्रीपुरुषसंपर्कजनितमित्रत्वाय “ओ “ववृत्याम् आवर्तयामि । आभिमुख्येन स्थित्वा लज्जां परित्यज्य त्वत्संभोग करोमीत्यर्थः । ‘धर्मस्य त्वरिता गतिः' इति न्यायेन कामस्य त्वरितत्वात् । अपि च “पितुः आवयोर्भविष्यतः पुत्रस्य पितृभूतस्य तवार्थाय “अधि “क्षमि अधि पृथिव्याम् । पृथिवीस्थानीये ममोदर इत्यर्थः । “प्रतरं प्रकृष्टम्। सर्वगुणोपेतमित्यर्थः । “नपातं गर्भलक्षणमपत्यं “वेधाः विधाता प्रजापतिः “दीध्यानः आवयोरनुरूपस्य पुत्रस्य जननार्थमावां ध्यायन “आ “दधीत। ‘प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते ' (ऋ. सं. १०. १८४. १) इत्युक्तत्वात् ॥ ।

प्रथम सूत्र 'ओ चित् सखाय' कहकर संबोधित करते हुये संवाद प्रारम्भ करती है । चित् (प्रत्यय.संस्कृत का एक अनिश्चयवाचक प्रत्यय जो कः किम् आदि सर्वनाम शब्दों में लगता है।) चित्त की वृत्ति, सोची,विचारी या अनुभूत की हुई कोई बात। सरणयु के गर्भ मैं देव बीज सूर्यांश यम यमी गर्भावस्था में यमल वास थे देव बीज होने से बोधवस्था में सह - वास, संग संग यमल रूप में वास कर रहे थे अपने प्रथम बोध में गर्भावस्था से ही यमी यम को अपने संग देखती आयी है बोधयुक्त, जिसे उसने विधाता की परम श्रेष्ठ इच्छा मान, विधाता कृत गर्भ से ही पुरूष सह संग वास का बोध प्रजापति की सृष्टि विस्तार क्रिया में विधि के बोध से स्त्री बोध से पुरूष सह संग गर्भ वास को विधाता के मन को सृष्टि विस्तार के लिये नियोजन मान अपने निकटतम उपलब्ध पुरूष यम को सृष्टि विस्तार हेतु विधि के विधान को संज्ञान लेते हुए निर्जन प्रदेश में जहाँ अन्य कोई और सृष्टि विस्तार हेतु प्रबंध न होने की दशा गर्भावस्था के सह - वास को निर्जन प्रदेश की भाँति मान कर यम को स्वयं स्त्री दृष्टि से पुरूष के बोध स्वरूप मान विधाता के ही मन को मान देव बीज विस्तार दृष्टि से यम से याचना करती है कि तुम्हारे द्वारा देव बीज को मेरे गर्भ से विस्तार वैसा ही होगा जैसा सूर्य तेज के बीज से श्रेष्ठ बीज अर्थात सूर्य तेज का विस्तार स्वयं के गर्भ ( यमी की दृष्टि से दैवीय विस्तार क्षेत्र, जहाँ सूर्य तेज बीज यम से रखवा कर उसका विस्तार करना चाहती है) से करने की याचना निर्जन प्रदेश में जहाँ सृष्टि विस्तार के लिये और कोई साधन उपलब्ध नहीं।

सूर्य का प्रभास क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है उनके रश्मिज, यम यमी यमल प्रभास सूर्य की रश्मि की दो भिन्न आवृति की रश्मिज इंद्रधनुष के दो न मिलने वाले छोर की तरह हैं एक जो श्रांत यम बीज रूपेण नियामक दूसरी यमी चंचल विस्तार हेतु प्रवृत् , ऋग्वेद १०/१३९/१ में कौशीतकी ब्राह्मण, शत्पथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों में सूर्य की सात रश्मियों का वर्णन निम्न है

(१) सुषुम्णा, (२) हरिकेश : (३) विश्वकर्मा (४) संपहंसु (५) अर्वावसु (६) विश्वश्रव: और (७) स्वराट्

वहीं आध्यात्मिक क्षेत्र में यही सप्तरश्मियाँ क्रमशः सप्तज्ञान भूमिकाओं शुभेच्छा , विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति ,असंशक्ति पदार्थाभाविनी , और तुर्यगा की द्योतक मानी जातीं है।

सुषुम्णा, शुभेच्छा यम और स्वराट्,तुर्यगा जो चंचल और विस्तार लिये हुये है वो यमी। जो परस्पर एक दूसरे से मिल नहीं सकते, विकास विस्तार की शक्ति से सम्पन्न और उद्दत है, के सामने संकट कि वो विस्तार में सहयोग कैसे करें,गर्भ ( बीज प्रसार विस्तार क्षेत्र ,जो उनके बीच का निर्जन क्षेत्र है। वहाँ यमी यम को आमंत्रित करती है अपना सूर्यः तेज बीज रखने को जिसे वो स्वयं की विस्तार शक्ति सै नव विस्तार कर सके।

कृतयुग रचना बोध को कलयुग मानवीयकरण संबन्ध बोध की दृश्यते त्रुटिः से यम यमी के संवाद को मानवीयकरण दृष्टि समझने की व्याकरण आधार पर द्वौ द्वन्द्वः उपस्थित हो रहा है।

न ते सखा सख्यं वष्ट्येतत् सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवाति । महस्पुत्रासो असुरस्य वीरा दिवो धर्तार उर्विया परिख्यन् ॥2 ॥

न । ते॒ । सखा॑ । स॒ख्यम् । व॒ष् । ए॒तत् । सऽल॑क्ष्मा । यत् । विषु॑ऽरूपा । भवा॑ति ।

म॒हः । पु॒त्रासः॑ । असु॑रस्य । वी॒राः । दि॒वः । ध॒र्तारः॑ । उ॒र्वि॒या । परि॑ । ख्य॒न् ॥२

यम आत्मानं परोक्षीकृत्य यमीं प्रत्युवाच । हे यमि “ते तव “सखा गर्भवासलक्षणेन सखीभूतो यमः “एतत् ईदृशं त्वयोक्तं स्त्रीपुरुषलक्षणं "सख्यं “न “वष्टि न कामयते । “यत् यस्मात् कारणात् यमी “सलक्ष्मा समानयोनित्वलक्षणा “विषुरूपा भगिनीत्वाद्विषमरूपा “भवाति भवति । तस्मान्न वष्टीत्यर्थः । इदानीं 'तिरः पुरू चिदर्णवं जगन्वान्' इत्यस्य प्रतिवचनमुच्यते । “महः महतः “असुरस्य प्राणवतः प्रज्ञावतो वा प्रजापतेः “पुत्रासः पुत्रभूताः “वीराः । ‘वीरो वीरयत्यमित्रान् वेतेर्वा स्याद्गतिकर्मणो वीरयतेर्वा' (निरु. १. ७) इति निरुक्तम् । शत्रूणां विविधमीरयितारः “धर्तारः धारयितारः “दिवः द्युलोकस्य । प्रदर्शनमेतत् । द्युप्रभृतीनां लोकानामित्यर्थः । - - - ॥

( यम ने कहा ) यमी , तुम्हारा साथी यम , तुम्हारे साथ ऐसा सम्पर्क नहीं चाहता ; क्योंकि तुम भी सहोदरा भगिनी हो , अत : अगन्तव्या हो । यह निर्जन प्रदेश नहीं है ; क्योंकि धुलोक को धारण करने वाले महान् बलशाली प्रजापति के पुत्रगण ( देवताओं के चर ) सब कुछ देखते हैं ।

उशन्ति घा ते अमृतास एतदेकस्य चित्त्यजसं मर्त्यस्य । नि ते मनो मनसि धाय्यस्मे जन्युः पतिस्तन्वमा विविश्याः ॥3 ॥

उ॒शन्ति॑ । घ॒ । ते । अ॒मृता॑सः । ए॒तत् । एक॑स्य । चि॒त् । त्य॒जस॑म् । मर्त्य॑स्य ।

नि । ते॒ । मनः॑ । मन॑सि । धा॒यि॒ । अ॒स्मे इति॑ । जन्युः॑ । पतिः॑ । त॒न्व॑म् । आ । वि॒वि॒श्याः॒ ॥३

( यमी ने कहा ) यद्यपि मनुष्य के लिए ऐसा संसर्ग निषिद्ध है , तो भी देवता लोग इच्छा पूर्वक ऐसा संसर्ग करते हैं । अत : मेरी इच्छानुकूल तुम भी करो । पुत्र - जन्मदाता पति के समान मेरे शरीर में बैठो ( मेरा सम्भोग करो । ) ।

न यत्पुरा चकमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम । गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिः परमं जामि तन्नौ।।4 ।।

( यम ने उत्तर दिया ) - हमने ऐसा कर्म कभी नहीं किया । हम सत्यवक्ता हैं । कभी मिथ्या कथन नहीं किया है । अन्तरिक्ष में स्थित गन्धर्व या जल के धारक आदित्य तथा अन्तरिक्ष में रहने वाली योषा ( सूर्यस्त्री - सरण्यू ) हमारे माता - पिता हैं । अतः , हम सहोदर बन्धु हैं । ऐसा सम्बन्ध उचित नहीं है ।

गर्भे नु नौ जनिता दम्पती कर्देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः । नकिरस्य प्र मिनन्ति व्रतानि वेद नावस्य पृथ्वी उत द्यौः ॥5 ॥

( यमी ने कहा ) - रूपकर्ता , शुभाशुभ प्रेरक , सर्वात्मक , दिव्य और जनक प्रजापति ने तो हमें गर्भावस्था में ही दम्पति बना दिया । प्रजापति का कर्म कोई लुप्त नहीं कर सकता । हमारे इससे सम्बन्ध को द्यावा - पृथ्वी भी जानते हैं ।

को अस्य वेद प्रथमस्याह्नः क ईं ददर्श क इह प्र वोचत् । बृहन्मित्रस्य वरुणस्य धाम कदु बव आहनो वीच्या नृन् ॥6 ॥

( यमी ने पुनः कहा ) प्रथम दिन ( संगमन ) की बात कौन जानता है ? किसने उसे देखा है ? किसने उसका प्रकाश किया है ? मित्र और वरुण का यह जो महान् धाम ( अहोरात्र ) है , उसके बारे में हे मोक्ष , बन्धनकर्ता यम ! तुम क्या कहते हो ?

यमस्य मा यम्यं काम आगन्त्समाने योनौ सहशेय्याय । जायेव पत्ये तन्वं रिरिच्यां वि चिद् वृहेव रथ्येव चक्रा ॥7 ॥

( यमी ने कहा ) जैसे एक शैया पर पत्नी , पति के साथ अपनी देह का उद्घाटन करती है , वैसे ही तुम्हारे पास मैं अपने शरीर को प्रकाशित कर देती हूँ । तुम मेरी अभिलाषा करो । आओ दोनों एक स्थान पर शयन करें । रथ के दोनों चक्कों के समान एक कार्य में प्रवृत्त हों ।

न तिष्ठन्ति न नि मिषन्त्येते देवानां स्पश इह ये चरन्ति । अन्येन मदाहनो याहि तूयं तेन वि वृह रथ्येव चक्रा ॥8 ॥ ( यम ने उत्तर दिया ) - देवों में जो गुप्तचर हैं , वे रात - दिन विचरण करते हैं । उनकी आँखे कभी बन्द नहीं होती । दुःखदायिनी यमी ! शीघ्र दूसरे के पास जाओ , और रथ के चक्कों के समान उसके साथ एक कार्य करो ।

रात्रीभिरस्मा अहभिर्दशस्येत् सूर्यस्य चक्षुर्मुहुरुन्मिमीयात् । दिवा पृथिव्या मिथुना सबन्धू यमीर्यमस्य बिभृयादजामि ॥9 ॥

( यम ने पुन : कहा ) - दिन - रात में यम के लिए जो कल्पित भाग हैं , उसे यजमान दें । सूर्य का तेज यम के लिए उदित हो । परस्पर सम्बद्ध दिन , धुलोक और भूलोक यम के बन्धु हैं । यमी , यम भ्राता के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष को धारण करें ।

आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि । उप बर्वृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत् ॥10 ॥

( यम ने पुन : कहा ) भविष्य में ऐसा युग आयेगा , जिसमें भगिनियाँ अपने बन्धुत्व विहीन भ्राता को पति बनावेंगी । सुन्दरी ! मेरे अतिरिक्त किसी दूसरे को पति बनाओ । वह वीर्य सिंचन करेगा ; उस समय उसे बाहुओं में आलिङ्गन करना ।

किं भ्रातासद्यदनाथं भवाति किमु स्वसा यन्निर्ऋतिर्निगच्छात् । काममूता बढे तद्रपामि तन्वा मे तन्वं सं पिपृग्धि ॥11 ।

( यमी ने कहा ) वह कैसा भ्राता है , जिसके रहते भगिनी अनाथा हो जाय , और भगिनी ही क्या है , जिसके रहते भ्राता का दुःख दूर न हो ? मैं काम मूर्च्छिता होकर नाना प्रकार से बोल रही हूँ ; यह विचार करके भली - भाँति मेरा सम्भोग करो ।

न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् । अन्येन मत् प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्टयेतत् ॥12 ॥

( यम ने उत्तर दिया ) - हे यमी ! मैं तुम्हारे शरीर से अपना शरीर मिलाना नहीं चाहता । जो भ्राता , भगिनी का सम्भोग करता है , उसे लोग पापी कहते हैं । सुन्दरी ! मुझे छोड़कर अन्य के साथ आमोद - प्रमोद करो । तुम्हारा भ्राता तुम्हारे साथ मैथुन करना नहीं चाहता ।

बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम । अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् ॥13 ॥

( यमी ने कहा ) हाय यम ; तुम दुर्बल हो । तुम्हारे मन और हृदय को मैं समझ सकती । जैसे - रस्सी घोड़े को बाँधती है , तथा लता जैसे वृक्ष का आलिङ्गन करती है , वैसे ही अन्य स्त्री तुम्हें अनायास ही आलिङ्गन करती है ; परन्तु तुम मुझे नहीं चाहते हो ।

अन्यमूषु त्वं यम्यन्य उ त्वां परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् । तस्य वा त्वं मन इच्छा स वा तवाऽधा कृणुष्व संविदं सुभद्राम् ॥14 ॥

( यम ने यमी से कहा ) - तुम भी अन्य पुरुष का ही भली - भाँति आलिङ्गन करो । जैसे लता , वृक्ष का आलिङ्गन करती है , वैसे ही अन्य पुरुष तुम्हें आलिङ्गित करें । तुम उसी का मन हरण करो । अपने सहवास का प्रबन्ध उसी के साथ करो । इस में मङ्गल कुछ नहीं होगा ।