'मेरे बचपन का गांव '

दादा ,दादी, भैया,भाभी, सारे मिलकर रहते जहा वो गांव मेरा , वो गांव मेरा..

हाथ मे लकड़ी, साथ रेडियो,हरदम उनके रहता था दिख जाते दादा जी कही ह्रदय में डर रहता था।

डरते डरते बातें करते गोद मे अपनी बिठा लेते। गाल पे मुछे अपनी लगाकर ,मुझ पे प्यार लुटा देते।

एक थाली में साथ बैठकर दादा, पोता खाते थे। अभी चढ़ाकर पीठ पे अपनी घोड़ा भी बन जाते थे।

याद जो उनकी आये आँखे ही भर जाती अब दादी अपने गले लगाकर दादा जी बन जाती अब।

पहले चाँद दिखाते थे,अब स्वयं चाँद में रहते हैं। मालूम नही मुझको अब भी ,ये तो पापा जी कहते हैं।   प्रेम,करुणा,सदभाव, सारे मिल के रहते जहाँ

वो गाँव मेरा, वो गांव मेरा..

केलू के घर बने,उनमे क्या आनन्द था हरे भरे खेतो में जाना,नजे कोई बंधन था।

मिट्टी के महल बना,उनको फिर सजा देना। गिल्ली डंडा खेल खेल में,यारो को नचा देना

लड़ लड़ आपस मे ,रिश्ते पक्के करते थे। कुट्टा होकर आपस मे,अब्बा फिर करते थे।

कहा गया वो दौर कहा, अब बचपन की बाते। दूरभाष ने छीन ली सारी दिन ओर राते।

आधुनिकता के दौर में,गांव  कहा ठीक पाते अब पास होकर भी घरवाले,दूरिया बनाते अब।

दूरियाँ, अकेलापन,तन्हाइयां,रहती जहा वो शहर तेरा, वो शहर तेरा...

महेश वर्मा "माँझी" जयपुर(राजस्थान)