क्षत्रिय घांची समाज इतिहास के झरोखे से

"घांची" शब्द मूलतः गुजराती भाषा का शब्द है,- जिसका अर्थ घांणी से तेल निकालने व बेचने वाले लोगों से है! प्राय: सभी प्रांतों में तेल निकालने वाले लोगों को तेली कहा जाता है

संस्कृत में- तेल्यकार, दक्षिण में- कुल्लुवारून, वैनिक, ज्योतिनगोरा, मालवा में- घानेराव, उतर भारत में साहू आदि नामों से पुकारे जाते है! ये सभी मूल रूप से तेली हैं जिन्हें व्यापारी वर्ग में माना जाता रहा है!

वैसे तो गुजरात के ऐतहासिक पन्नों पर घांची जाति को क्षेत्र अनुसार 8 भागों में विभक्त किया गया है - अहमदाबादी, चम्पलेरिया, मौर {मोड़}, पटना, सिध्पुरिया, सुरती, खम्बाती और पंचोली ! इनमें से मौढ तथा सिध्पुरिया घांचियों को उंच्च दर्जे का मानते हुए इनका सम्बन्ध व उद्भव क्षत्रिय राजपूतो से माना है बाकी को वैश्य तेली माना जाता हैं।राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र - जोधपुर, पाली, नागौर, सोजत,बालोतरा,सिवाना,भीनमाल, सांचौर, सुमेरपुर, जालोर, सिरोही,मेवाड़ तथा मध्य प्रदेश के मालवा इलाके में पाए जाने वाले घांची जाति के लोग मूलतः पूर्व के उच्च के राजपूत राजशी कुल के क्षत्रिय घांची है , इन क्षत्रीय घांचीयों के गौत्र- परमार(पंवार), भाटी, सोलंकी,चौहान(देवड़ा), बोराणा, पडिहार,सोलंकी, राठौड़, गहलोत, आदि नाम से प्राप्त होते है! तथा इनका खान-पान (शाकाहार), रहन-सहन वेशभूषा आदि क्षत्रिय राजवंशियों सा ही है !रीति रिवाज उनसे कुछ भिन्न हैं, ये लोग भी गुजरात के सिद्धपुर पाटण से उद्भव होने का तथ्यात्मक इतिहास रखते हैं!

इनके राव भाटों की बहियों में उल्लिखित ये कवित -

संवत इग्यारह एकानवे जेठ तीज रविवार!

छत्रवट मेल घांची हुआ जैसिंग री वार!!

यह दोहा इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण है कि आज से ठीक 887 वर्ष पहले इन लोगों ने राजपूती रीतिरिवाज और खानपान छोड़ घांची होना अंगीकार किया था! अत: ये "घांची", मूलत निम्न तेली अथवा वैश्य तेली जाति के ना हो कर क्षत्रियवंशी हैं! ये लोग आज भी अपनी जाति के आगे कहीं पर "लाठेसा क्षत्रीय घांची" और कहीं पर "कचेटियाँ तेली घाँची" लिखते हैं!

(घाणी की लाठ उठाने से लाठेचा अलंकार शब्द बना तथा क्षत्रवट छोड़ तेल का धंधा किया तो कचेलिया तेली घाँची अलंकार शब्द बना) (सन्दर्भ- पुस्तक श्री क्षत्रिय घाँची इतिहास पेज 24)

क्षत्रिय राजपूती की छत्रवट परंपरा छोड़ राजपूतों से क्षत्रिय घांची बनने की भी एक रोचक लेकिन स्वाभिमानी कहानी इतिहास में प्रचलित है

गुजरात में अणहिलवाडा चालुक्य सोलंकी राजवंश अपने शौर्य और वैभव के लिए प्रसिद्ध रहा है! इनकी वंश परम्परा के 14 वें महान शासक सिद्धराज जयसिंह सोलंकी नें अपने 49 वर्षीय शासन काल में सिद्धपुर पाटण पर राज्य करते हुए अनेक कीर्तिमान स्थापित किये तथा भारत देश के हिन्दू शासकों में अपना विशिष्ठ स्थान बनाया था! उनकी कीर्ति के अमर कमठाण आज भी महत्वपूर्ण पूरी संपदा के रूप में सिद्धपुर व पाटण में पर्यटकों के लिए विषमयकारी बने हुए है!

कथा अनुसार

:- सिद्धराज महाराजा जयसिंह अपनी स्वप्निल इंद्रलोक यात्रा की कल्पना अनुसार अपनी राजधानी पाटण में एक भव्य महा रुद्रालय बनाने का संकल्प कर वास्तुशास्त्री को नक्शा व् कार्य योजना बनाने के निर्देश देकर उसे जल्द से जल्द निर्माण का आग्रह करता है ! राजा अपने पूर्वज मूलराज द्वारा सरस्वती नदी के तट पर शुरू किए गए विशाल शैव मंदिर को एक अलौकिक और भव्य स्वर्ग से भी सुंदर रुद्रमाल मंदिर के रूप में पूर्ण कराने हेतु बड़े बड़े वास्तु शास्त्रीयों को राजदरबार में बुलाते हैं, एक के ऊपर एक सांत मोतियों को स्थिर करने की कठिन परीक्षा के उपरांत कुछ वास्तु कारों को निर्माण का यह काम सौंपते हैं, वास्तुकारों के अनुसार राजा के स्वप्निल मंदिर के निर्माण में 24 वर्ष का समय लगना बताया जाता है , जबकि ज्योतिषि में राजा की उम्र 12 वर्ष शेष होना ही बताते हैं ! राजा अपनी ये महत्वाकांक्षी योजना अपने जीते जी पुरे करने के संकल्प को साकार करने हेतु प्रतिबद्ध होता है, अत: वह गहन चर्चा के बाद 24 वर्ष का कार्य 12 वर्ष में पूर्ण करने के ध्येय से रात दिन 24 घंटे काम संचालित करने के निर्देश वास्तुकारों को देता है, रात्रि कार्य में रौशनी हेतु मशालों को जलाने के लिए अतिरिक्त तेल की ज़रूरत को समझते हुए राज्य के बाहर से उस काल के तेलीयों को बुलाकर उनसे तेल निकलवाया जाने लगा, तथा तेली कोई कोताही नहीं करे इस लिए उन पर निगरानी रखने के लिए राजा अपने भरोसे मंद राजपूत सरदारों को नियुक्त कर देता है! लगभग 5 वर्षों पश्चात् बाहर से आये तेली अपने पास एकत्रित धन छिन जाने के भय से आशंकित हो, अपनी लड़कियों की शादी करने व घर-परिवार सम्भाल कर पुन: वापस आने का बहाना कर, निगरानी करने वाले राजपूत सरदारों की साख पर राजा से छुट्टी लेकर भाग जाते हैं, और वापस लौट कर नहीं आने की स्थति में राजा तेलियों की साख भरने वाले सरदारों से आग्रह करता है कि मैंने तेलिओं को आप लोगों के भरोसे छुट्टी दी थी, अब मेरा संकल्प पूरा करने के लिए आप लोग अपने निगरानी अनुभव से सीखे अनुसार घांणीये चलाकर तेल आपूर्ति करने की कृपा करें! असमंजस में डूबे सरदारों से राजा विनय करते हुए कहता है कि- आप मन में उंच नीच की भावना नहीं लायें, मेरा सिहांसन एक गज ऊँचा है तो आपके आसन वाली घांणी सवा गज ऊँची होगी, {उस ज़माने में घांणी चलाने वाले तेलियों के घांणी पर आसन नहीं होते थे, वे बेल के पीछे घूमते रहते थे, और अब भी सिर्फ लाठेसा क्षत्रिय घांची की घांणी पर ही बैठक के कपाट होते है} तेलियों को एक मण तेल निकालने पर एक सोने की मोहर देते थे आपको 2 सोने की मुहर दी जाएगी, मेरा संकल्प पूरा करने का कार्य धर्म समझ कर करें! राजा के अनुनय विनय और वचन पूर्ति व राज धर्म को निभाने की भावना से 8 गोत्रों के राजपूत सरदारों ने ढालें तलवार छोड़ तेल निकालने का कार्य प्रारम्भ किया !जिसका दोहा इस प्रकार वर्णित हैं!

(सन्दर्भ- पुस्तक श्री क्षत्रीय घाँची इतिहास पेज 19)

वेलो हेलो मारियो सुणो सिरदारा साथ!

ढालों तलवारों नीचा मेल दो झेलो घाणी हाथ!!

राजा के सपने का रुद्र्माल मंदिर 12 वर्ष के भीतर पूरा होना था संवत 1191 तक इन सरदारों को तेल निकालने का कार्य करते हुए 6 वर्ष हो चुके थे इतिहास में लिखा हुआ हैं कि समय पर रुद्रमाल मंदिर पूरा करने के लिए राजा सिद्धराज सोलंकी इतना उत्साहित था कि उससे अपने खजाने का मुँह खोल दिया था,वो तेल निकालने वाले सरदारो पर अतिप्रसन्न रहता था, कहते हैं कि उस समय 14 करोड़ सोने की मोहर इस मंदिर निर्माण पर खर्च की गई थी,

दोहा (सन्दर्भ - पुस्तक क्षत्रीय घांची इतिहास पेज 21)

सात खंडमाल बांदी सही जैसिंग काम किदो जड़ी!

रुद्रमाल ढाल करता रदु चवदे करोड़ मोहरों कागद चढ़ी!

सिद्ध राजा जैसिंग रुद्रमालो देवल करावे!

ऐड़ा पाटण अमर जस ज्यारो कबुहन जावे!

उस समय तक घाणी चलाने वाले सरदार मोहरों से मालामाल हो चुके थे, यह सब बात अन्य सरदारों को खटकने लगी और वो बात बात पर उनसे उलझने लगे, तेल निकालने का काम तुच्छ बताक़र उनको नीचा दिखाने का काम करने लगे, राजदरबार में भी तेल निकालने वाले सरदारों को राजा की और से विशेष आसन मिलता था,रुद्रमाल मंदिर निर्माण पूर्ति के कुछ महीने एक दिन अन्य सरदारों ने भरे राजदरबार में तेल निकालने वाले सरदारो को आगे उच्च आसन पर बैठते देख कर अपना अपना आपा खो दिया और तेल निकालने वाले सरदारो से कहा कि आप लोग गंदे कपड़े पहले हो उस पर तेल लगा हैं आप तो तेल की घाणी में इल्लियाँ को मारते हो, आप तो पापी हो, हमारे से नीचे हो चुके हो, और अब आज के बाद जब तक आप 68 तीर्थ कर अपने पाप धो नहीं देते, जब तक राजा के खजाने से प्राप्त आपकी सोने की मोहरों के भंडार में से आधा धन दान पूण्य नहीं कर देते तब तक हम आपको हमारी बेटी नही देंगे ना ही आपको हमारे न्याति में स्थान देंगे, इस बात पर बहस शुरू ही थी इतने में राजा सिद्धराज जयसिंग सोलंकी भी राज दरबार में पहुंच गए तब तेल निकालने वाले राजपूत सरदारों ने राजाजी को सब किस्सा बताया, जब राजा ने अन्य सरदारों से ऐसा अनुचित बर्ताव ना करने का कहा तो वो और उत्तेजित हो गए और कहा कि हे महाराजाधिराज भले ही आप इनको अपना बराबरी का मानों लेकिन आज के बाद हम तो इन तेलियों को अपनी न्याति से अलग करते हैं और इनके साथ बेटी रोटी व्यवहार नहीं करेंगे तेल निकालने वाले सरदारो को पूरा विश्वास था कि राजा उनकी तरफदारी करके अन्य सरदारों को दंडित करेंगे लेकिन उस समय राजा असमंजस में पड़ चुका था क्योंकि अन्य सरदार संख्या में सैकड़ों थे, उस समय राजा ने समझदारी दिखाते हुए समय लेने की भावना से चुप रहना बेहतर समझा ! ये बात देख कर तेल का काम करके आये सरदारों को लगा कि राजा जी का काम करने के बावजूद राजा चुप हैं वो जान गए कि विरोधी सरदारों की बड़ी संख्या होने के कारण राजा असमंजस में हैं और कोई कठोर निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हैं,

तेल निकालने वाले सरदारों के धनमाल और मोहरों को लेकर अन्य सरदार पहले भी उनकी बुराई करते रहे थे, और अब निर्णय न होता देख तेल निकालने वालो को यह बात बहुत अपमान जनक लगी, और उन्होंने इसे स्वाभिमान पर ठेस मानते हुए, समारोह की जाजम को ठोकर मारकर वहां से ये कहते हुए उठ गए कि -

'वचन निभायां भी अपमान मिले तो, आ रजपूती थांणे कन्ने इ राखो, मैं तो घाणी खड़वा वाला घांची ही भला' ! और आंठ गौत्रों के 173 राजपूतों नें घाणी के बाड़े में जाकर जाजम की, इन 8 क्षत्रिय गोत्रों के इन 173 सरदारों की गोत्र अनुसार संख्या इस प्रकार थी

दोहा (संदर्भ पुस्तक - श्री क्षत्रिय घाँची इतिहास पेज 67)

तवां चालक गुणतीस,बीस खट प्रमार बखाणु ।

राठौड़ पच्चीस बेल बाहरे बौराणु ॥

लाभ सोले गेहलोत भाटी उगणीस भणिजे ।

वणे चहवांण वीस सात पडिहार सुणिजे ॥

सुंदेचा तीन बंदव सही,कवि रुद्र कीरत करे ।

राजरे काज करवारी धूं,साख साख एतां सरे ॥

भावार्थ - गुणतिस 29 सौलंकी छबीस 26 परमार(पँवार) पच्चीस 25 राठौड़ बारह 12 बोराणा सोलह गेहलोत बीस 20 चौहान उगनीस 19 भाटी सात 7 पडियार और तीन 3 सुंदेचा (परिहारिया ) तीन भाई थे ऐसे कुल 173 सरदार राजपूती और पाटण छोड़ने की कवित कवि रूद्र करता है । (कवि रुद्र पाटण के राजा सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के राज राव थे )

और आठ 8 गोत्र के इन 173 सरदारों ने एक लोटे लूण पीकर पाटण में गादोतर डाल [गधे की प्रस्तर आकृति को ज़मीन में गाडना] कर ये सौगंध ली कि अब पाटण राज धरा पर कभी पांव नहीं रखेंगे ! और उन्होंने अपने परिवारों के साथ रातों रात जन्म धरा पाटण छोड़ कर आबू चले आये दोहा ( संदर्भ- पुस्तक श्री क्षत्रिय घाँची इतिहास पेज 26)

पाटण छोड़ पधारिया कियो आबू परवेश ।

वरचे ज्याने पुगसी शिव आबू अचलेश।।

तथा यहाँ आकर संवत 1200 तक आबू की तलहटी में अलग अलग गांवों में घाणी का काम कर अपनी जीविका चलाने लगे, इस बीच उनकी संताने बड़ी हो चुकी थी तो उनको यह डर सताने लगा कि हम अलग अलग गावो में बिखर चुके हैं अगर शादियां करने में अपने गोत्र का ध्यान नहीं रखा तो गोत्र घात के पापी बन जाएंगे, तब संवत 1200 में अपनी न्यात के नियम कायदे निर्धारित कर पाटण से चन्च भाट को लाकर आबू अचलेश महादेव के चरणों मे सबलिखीत मुकर किया और आजीविका हेतु घांणी चलाने का ही कार्य करने लगे

दोहा (संदर्भ- पुस्तक श्री क्षत्रिय घाँची इतिहास पेज 26)

लारज लाया भाट ने पंचों ही बांदी पाल ।

दान दातारि न देवसी ज्याने गदपत हैं गाळ ।।

आज मारवाड़ क्षेत्र में जो क्षत्रिय घांची जाति है वो इन्ही क्षत्रीय परम्पराओं में अपना स्थान रखने वाली क्षत्रियवंशी है, न कि भारत के अन्य तेली जातियों की तरह मूल रूप से तेली है!

विशेष निवेदन

कुछ लोग सुनी सुनाई बातों के आधार पर क्षत्रिय घाँची जाति का संस्थापक कुमारपाल को बताते हैं लेकिन यह बात आधारहीन हैं इसके कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं,

पहली बात तो यह कि क्षत्रिय घाँची पहले भी क्षत्रिय ही थे क्योंकि क्षत्रियत्व तो उत्तपत्ति से ही रक्त के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी आगे चलता जाता हैं, उन्होंने केवल राजपूती रितिवाज और खानपान को त्याग कर क्षत्रिय राजपूत से क्षत्रिय घाँची होना अंगीकार किया था,

दूसरी बात यह कि संवत 1191 में ही तेल निकालने वाले सरदार ढाल तलवार त्याग कर घाणी अपना कर घाँची बन कर पाटण को छोड़ चुके थे, कुमारपाल उस समय से वर्षों पहले पाटण से भाग कर सिद्धराज जयसिंग सोलंकी से जान बचा कर कभी खंभात, कभी बड़ोदा, कोल्हापुर, कोंकण के जैन देरासरो में जैन साधुओं के बीच छिपकर रह रहा था, जब संवत 1199 में सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु हुई तब कुमारपाल मालवा के जैन देरासर में छिपा हुआ था, जयसिंह की मृत्यु के पश्चात ही वो पुनः पाटण आया था, उस समय उसने जैन मुनि हेमचन्द्र की मदद और अपने बहनोई कान्हादेव की सेना की मदद से जयसिंह के घोषित उत्तराधिकारी को मारकर पाटण का राज्य प्राप्त किया था, जब तेल निकालने वाले सरदार संवत 1191में ही पाटण त्याग चुके थे तो 1199 में राजा बनने वाला कुमारपाल उनका संस्थापक कैसे हो सकता हैं?

कुछ लोग यह बात करते हैं कि कुमारपाल भी घाँची सरदार जो तेल निकालने को राजी हुए थे उनके साथ वो भी तेल निकालता था, तो यह बात असत्य हैं तेल निकालने के काम में राजकुमार कीर्तिपाल लगा हुआ था ना कि कुमारपाल ( संदर्भ पुस्तक श्री क्षत्रिय घाँची इतिहास पेज 19)

कुमारपाल, कीर्तिपाल और महीपाल ये तीनों राजा सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के पिता राजा कर्ण के सौतेले भाई त्रिभुवनपाल के पुत्र थे, जयसिंह के कोई पुत्र नहीं था फिर भी वो अपने इन सौतेले भाइयों को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाना चाहता था क्योंकि उसका सोचना था कि इन तीनों की दादी भीमदेव प्रथम की दूसरी पत्नी बकुलादेवी क्षत्राणी न होकर एक नर्तकी वेश्या थी और सिद्धराज जयसिंग सोलंकी नहीं चाहते थे कि उनके उस समय के विशाल वैभवशाली साम्राज्य का उत्तराधिकारी किसी नृतकी का रक्त वाहक बने, लेकिन जब उस समय उनके दरबारी जैन मुनि हेमचन्द्र ने राजा को यह भविष्यवाणी सुना दी कि एक दिन कुमारपाल पाटण का राजा बनेगा तो जयसिंह किसी भी तरीके से अपने राज्य को एक नृतकी के पौत्र के हाथों जाने से बचाने के लिए कुमारपाल को जान से मारने की जुगत में लग गए, उसकी भनक मिलते ही कुमारपाल पाटण से गायब होकर जैन देरासरो में चला गया था,

कुछ सुनी सुनाई बाते हैं कि कुमारपाल घाँची बने सरदारो के साथ मारवाड़ राज्य के पाली में आया था और फिर यहाँ से राजा बनने पाटण चला गया था, यह बात भी तथ्यों से परे हैं, जिसका सन्दर्भ यह दोहा हैं जिसमें उस समय पाटण त्याग गादोतरा गाड़कर आने वाले 8 गोत्र के 173 क्षत्रीय सरदारों के कुटुंब प्रमुख के नाम मिलते हैं

दोहा (संदर्भ पुस्तक श्री क्षत्रिय घाँची इतिहास पेज 67)

प्रथम राघो परमार गेलोत जाँझो गणिजे।

बोराणों लखराज भाटी वेलो भणिजे।।

चाँवण सतलसी सोलंकी खीमो सवाई।

राठोड़ो वीर धवल पुत्री चुमालिस परणाई ।।

पडिहार राण पदमसिंह वडम आण वधारिया ।

कवित आण भाट डूंगर कहे सुरफल जलम सुधारिया ।

इस दोहे में कहीं भी सोलंकी कुमारपाल का जिक्र नही हैं जबकि सोलंकी में खीमो जी नाम हैं दूसरी बात यह मान भी लें की साथ आकर वो वापिस पाटण चला गया तो फिर गादोतरा का प्रण तोड़ कर वापिस जाने वाला संस्थापक कैसे हो सकता हैं

इस वर्णन में जिन पुस्तकों से जानकारी ली गई हैं

वो इस तरह से है

श्री क्षत्रिय घाँची संक्षिप्त इतिहास

मुहथा नैंसी री ख्यात

सिद्धराज सोलंकी चरित्र

कुमारपाल चरित्र

क्रमशः