दांगी समाज का इतिहास?

edit
इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस डिपार्टमेन्ट ऑफ हिस्ट्री, दिल्ली यूनिवर्सिटी, सोशल साईन्स बिल्डिंग, दिल्ली में आयोजित दिसम्बर 2007 के 68वें कांग्रेस में प्रस्तुत आलेख के आधार पर।
edit

भारतीय संस्कृति में दांगी समाजः एक ऐतिहासिक खोज

भारतीय संस्कृति में दांगी समाज की सभ्यता, संस्कृति और बोली का इतिहास काफी प्राचीन है। प्रारंभ में मानव डांग यानी जंगल और दांग यानी पहाड़ व पहाड़ी में रहकर जीवन व्यतीत करता था । किन्तु शनैः शनैः जब उसके मन में एक दूसरे के प्रति साथ मिलकर रहने और शील तथा उन्नत होने की भावना जगी तब सभ्यता और संस्कृति का जन्म हुआ।

शब्दकोशों के अनुुसार 'सभ्यता, का अर्थ शील और सज्जन होने की अवस्था या भाव से है अर्थात् किसी जाति या राष्ट्र की वे सब बातें जो उसके सौजन्य तथा शिक्षित और उन्नत होने की सूचक होती है- ‘सभ्यता’ कहलाती है ।

उसी प्रकार ‘संस्कृति’ का अर्थ संस्कार और सुधार से है यानी किसी व्यक्ति, जाति, राष्ट्र आदि की वे सब बातें जो उसके मन, रूचि, आचार-विचार कला- कौशल और सभ्यता के क्षेत्र में बौद्धिक विकास का सूचक होती है-‘संस्कृति’ कहलाती है।

दांगी समाज की सभ्यता, संस्कृति और बोली वन-प्रांतरों, पर्वत-पहाड़ियों, नदी घाटी तथा मैदानी भागों में पनपी । गुजरात का डांग-आह्वा, उदयपुर की अहाड़ घाटी दांगी सभ्यता, सागर-एरण का दांगीवाड़ा, इन्दौर-उज्जैन का दंगवाड़ा, राजस्थान का डांग-भांग, पंजाब का काठा प्रदेश, नेपाल का डांग जिला, ईरान का द्रंगियाना, पेशावर का यदु की डांग, मध्य एशिया का दागिस्तान, मध्य भारत का दंडकारण्य, दण्डक महाजनपद आदि इसके प्रामाणिक उदाहरण हैं। 


पुराणों में दांगियों के पूर्व पुरूष राजा दण्ड (जो वैवस्त मनु की तीसरी पीढ़ी में और सूर्यवंशी नरेश इक्ष्वाकु के पुत्र थे ) उनका राज्य क्षेत्र ईसा पूर्व 4767 में 'दण्डकारण्य महाजनपद' था। राजा दण्ड के वंशज जो डांग,-आह्वा, मत्स्य, बुंदेलखण्ड, दशार्ण, एरण, दंगवाड़ा, दाण्डकी / डांडकी (मध्य भारत का एक पौराणिक गणराज्य) डांग देश नेपाल, द्रंगिस्तान आदि  क्षेत्रों में स्थानान्तरित हुए और उन क्षेत्रों में विभिन्न नामों से संबोधित होकर इसी राज वंश क्रम में शासक के रूप में समय-समय पर न्यून या अधिक शासन करते रहे हैं। मालव, शिवि, उत्तर वैदिक काल का केकय,  निषध, विदर्भ, डांडकी, मत्स्य आदि दण्डवंशी राज्य इसी कड़ी में आते हैं। 

डा. भगीरथ प्रसाद त्रिपाठी, निदेशक, ‘अनुसंधान संस्थान’ संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के अनुसार "प्राचीन भारत 'गणराज्यों' का देश था। उनकी अपनी-अपनी सभ्यता एवं संस्कृति थी। उन्हीं की विविधता प्रदेशों, भाषाओं एवं जाति नामों का कारण बनी। अतः प्रादेशिक संस्कृतियों एवं भाषाओं का मूल जानने के लिए प्राचीन गणों का सूक्ष्म अध्ययन आवश्यक है। यद्यपि कि पाश्चात्य विद्वानों ने इसपर पर्याप्त कार्य किए हैं, फिर भी सम्पूर्ण रहस्यों का उद्घाटित करने में असमर्थ रहें हैं। आज स्वतंत्र भारत में निष्पक्ष भाव से प्राप्त सामग्री के आधार पर अनुसंधान करने की आवश्यकता है।"

‘बुंदेलखण्ड की प्राचीनता’ नामक अपनी पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि "प्राचीन भारत गणराज्यों का देश था। प्राचीन भारतीय गणराज्यों में 'दण्डक जनपद' भी एक प्रसिद्ध गणराज्य था। दशार्ण एवं बुन्देलखण्ड के बीच दण्डक जनपद आबाद था। ब्रह्माण्ड और मत्स्य पुराणों में दण्डक जनपद का वर्णन मिलता है। मार्कण्डेय और वायु पुराण में भी दण्डक जनपद का उल्लेख है। दण्डक जनपद के निकटवर्ती जनपदों में पुलिन्द, विन्ध्य, पुषिक और विदर्भ थे।"

            ‘पुलिन्दा विन्ध्य मौलीया, वैदर्भादण्डके सह
            पौरिका मौलिकाश्यैव, अश्कामोगवर्धकाः ।
            कारूषाश्च सहैषीका, आटव्याः शवरास्तथा
            पुलिन्दा, विन्ध्य पुष्किाः वैदर्भा दण्डकै सह ।
            आमीर सह वैशिक्या, आढक्या शवराश्चये
            पुलिन्दा विन्घ्न मौलीया, वैदर्भादण्डकै सह ।
            आमीर सहसंषीका, आटव्याश्वराश्चये
            पुलिन्दा विन्ध्यमुलीका, वैदर्भादण्डकै सह ।

अर्थात् मत्स्य पुराण के अनुसार आटव्या यानी जंगल भाग के जनपदों में कारूष, शवर, पुलिन्द, विन्ध्य, पुष्पिका आदि जनपद विदर्भ और दण्डक जनपद के साथ कार्यरत थे। ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार देश के भोजवर्द्धक प्रदेश अर्थात् दक्षिणी भाग में मौलीय और पुलिन्द आदि जनपदों के नगर राज्य विदर्भ और दण्डक सरीखे नगर राज्यों के सहित वर्तमान थे। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार आमीर और शवर आदि तथा पुलिन्द एंव विन्ध्य मौलीय आदि जनपद विदर्भ और दण्डक जनपद के साथ विद्यमान थे। वायु पुराण के अनुसार देश के आटव्यी अर्थात् जंगल प्रदेश में आमीर, शवर पुलिन्द और विन्ध्य मुलीका आदि जनपद समूह विदर्भ एवं 'दण्डक जनपद' के साथ कार्यरत थे । 

विश्व की कई सभ्यताएँ जिनमें मिश्र, चीन, क्रीट और सुमेरियन सभ्यताओं से यदि भारतीय सभ्यता की तुलना की जाय तो एक बहुत बड़ी विशेषता भारतीय सभ्यता में मिलेगी, वह है अति प्राचीन काल से अबतक की इसकी सजीवता। विश्व की अन्य प्राचीन सम्यताएँ उन्नत देशों में थी, पर आज वे लुप्त हो चुकी हैं। उनकी यादगार स्वरूप मूक अवशेष ही शेष हैं, परन्तु भारतीय सभ्यता के समान सजीवता नहीं। भारतवासियों के रहन-सहन और विचार जैसे प्राचीन काल में थे, लगभग आज भी उसी सजीव हालत में दिखाई पड़ते हैं। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति की एक अन्य विशेषता यह भी रही कि बार-बार प्रहारों के बावजूद भी यह नष्ट नहीं हो सकी।

विश्व इस तथ्य से वाकिफ है कि 'भारत' विश्व के प्राचीनतम देशों में एक है। इसका प्रबल प्रमाण प्राचीन सिंध, पंजाब और गंगा यमुना के काठे में पायी गई प्रचीन सम्यताएँ हैं, जो यूरोप की दजला, फरात और चीन की पीली नदी घाटी के बाद की सम्यता मानी गई।

हाल में ही सैंधव सभ्यता के समकालीन "डांगी-सभ्यता" का पता ‘दंगवाड़ा’ के उत्खनन से हुआ है। इस स्थल की खोज लेखक द्वारा किये जाने के बाद विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व के विभागाध्यक्ष सह इन्चार्ज ऑर्किलाजिकल एक्जक्वेशन एण्ड म्यूजियम पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर से मिलकर जानकारी दिये जाने पर उन्होंने वर्ष 1978-80 में उज्जैन से 26 कि.मी. दूर बड़नगर-इन्दौर रोड पर स्थित चंबल नदी के किनारे ‘दंगवाड़ा’ नामक प्राचीन टीले की खुदाई करवायी,जिससे जमीन में दबा चार हजार वर्ष पुराना नगर प्रकाश में आया जो दांगियों की विकसित सभ्यता और संस्कृति को प्रकट करता है।

इस संबंध में एम. के. माहेश्वरी ने लिखा है कि "चम्बल नदी की गोद में बसे ‘दंगवाड़ा’ ग्राम के पश्चिमी छोर पर ऐसे निर्जन टीले हैं, जो लगभग 4000 वर्ष पुरानी एक विकसित सभ्यता को अपनी थाती में संजोए हुए था। तार्किक दृष्टि से गाँव का नाम इसकी पुष्टि करता है, पर प्रमाणों के अभाव में इतिहास मौन है। संभव है ये कोई स्थानीय "दंग" नामक शासक रहा हो जिसे इतिहास तो स्थान न दे सका, पर गाँव वासियो ने हजारों वर्षों के बाद भी अपने हृदय में स्थान दे रखा है।

वहीं श्री एम. एल. राणावत ने कहा कि भूगर्भ शास्त्रियों एवं पुराविदों ने 'दंगवाड़ा' उत्खनन से प्राप्त वस्तुओं के जीवाश्म का अध्ययन कर प्राचीन "मालव-संस्कृति" के अभ्युदय का पता लगाया है। दंगवाड़ा से प्राप्त अवशेषों से पता चलता है, कि 'मालवा' की समकालीन संस्कृति चार हजार वर्ष पुरानी है। प्राप्त पुरातन महत्त्व की वस्तुएँ मोहनजोदड़ों एवं हड़प्पा संस्कृति के समीचीन हैं।

पुराविद् डा. वी. एस. वाकणकर ने जमीन में दबे चार हजार वर्ष पुराना ‘दंगवाड़ा’ नामक ऐतिहासिक स्थल का उत्खनन कर यह सिद्ध कर दिया कि "दांगियों की सभ्यता" भारतीय संस्कृति में ‘सर्व-प्राचीन’ थी। उन्हांने यह भी स्पष्ट किया कि जिस युग में मानव ने ताम्र एवं अश्म के प्रयोग द्वारा अपने जीवन पद्धति का निर्धारण किया, उस युग की यही जीवन शैली पुरातत्त्व में ‘ताम्राश्मयुगीन संस्कृति’ के नाम से जानी जाती है। ‘दंगवाड़ा’ की सर्व प्राचीन सभ्यता यही थी, जो विभिन्न रूपों में यहाँ प्राप्त हुई है।

भारत की इस प्राचीन "दांगी-सभ्यता" ‘दंगवाड़ा’ का मेल श्री वाकणकर ने उदयपुर की अहाड़ घाटी की "दांगी-सभ्यता" और 'एरण-सागर' की चंबल-वेतवा नदी घाटी की दांगियों की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति से की है। ये क्षेत्र आज भी "दांगी" बाहुल्य हैं।

उदयपुर विश्वविद्यालय के श्री आर0 एन0 व्यास और जवाहरलाल नेहरु विश्व विद्यालय के डा.ए.एन.भट्ठाचार्य ने अपनी शोध पुस्तक "हैबिटेट इकॉनोमी एण्ड सोसायटी" के अन्तर्गत ‘ए स्टडी ऑफ-द-दांगीज’ में अहाड़ घाटी की सभ्यता को दांगियों की सभ्यता और संस्कृति बतलाई है। इतना ही नहीं उन्होंने अपनी इस शोध पुस्तक को 'मेवाड़ के उन डांगी कृषक वंशजों को समर्पित किया है, जिन्होंने अपनी मेहनत और परिश्रम से मेवाड़ ऐसी मरूभूमि को उर्वर बनाया है।'

दांगियों का प्राचीन स्थल ‘एरण’ एक वैभवशाली नगर था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में सागर (एरण) का क्षेत्र संभवतः चेदि राज्य के एक अंग के रूप में सम्मिलित कर लिया गया था, जो उत्तर भारत के षोड्स महाजनपदो में से एक था। आगे चलकर इस क्षेत्र को पुलिन्द देश में सम्मिलित होने का पता चलता है, जिसमें बुन्देलखण्ड का पश्चिमी भाग और सागर जिला-एरण था। 'एरण' का विस्तृत विवरण टोलमी के वर्णन में भी मिलता है। उसके अनुसार 'एरण' गांव में पुरातत्त्वीय अवशेषों का एक महत्त्वपूर्ण संकलन है,जो आज यहाँ खण्डहर के रूप मे किला के अवशेष रुप ही सिर्फ विद्यमान है,जिसे डांगियों के राजाओं ने बनवाया था। इस क्षेत्र पर दांगियों का ही अधिकार रहा है।

‘एरण’ के ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक महत्त्व को देखते हुए सागर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, संस्कृति तथा पुरातत्त्व विभाग के विभागध्यक्ष प्रोफेसर कृष्णदत्त वाजपेयी ने वर्ष 1960 से 1965 तक उत्खनन कार्य कराकर ताम्राश्म युग से उत्तर मध्यकाल तक के क्रमिक संस्कृतियों का पता लगाया। यहाँ से प्राप्त सिक्के, लाल पर काले रंग से चित्रित उत्तम कोटि के मृदभांड, ताम्राश्म संस्कृति में 2000 ई. पू. से 700 ई. पू. तक कायम मिलती है, जो "डांगी-सभ्यता और संस्कृति" को दिग्दर्शित करती है। तुलनात्मक दृष्टि से 'एरण' की मूर्तियाँ उत्कृष्ट कोटि में आती हैं। संपूर्ण स्थान में  प्राचीन सभ्यता के अवशेष भरे पड़े हैं। प्राचीन काल में इसका व्यापक विस्तार था। आधुनिक काल में अनेक पुराने टीलों पर वर्त्तमान में गाँव बसा है।

'एरण' की स्थिति भौगोलिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण रही है। एरण एक ओर 'मालवा' का तो दूसरी ओर 'बुंदेल-खण्ड' का प्रवेश द्वार माना गया है। 

उज्जैयिनी से एक मार्ग विदिशा तथा विदिशा से एरण होते हुए दशार्ण, कौशांबी और काशी की ओर जाता था। इन क्षेत्रों पर डांगियों का ही बाहुल्य था, जो आज भी विद्यमान है। गुप्त सम्राटों ने सैनिक नियंत्रण की दृष्टि से भी इस स्थान को सर्वोत्तम समझा था। गुप्त शासन के बाद 'एरण' के समृद्ध नगर की समाप्ति हो जाती है। संभवतः हूणों ने नगर और प्राचीन मन्दिरों को ध्वस्त किया हो। क्योंकि इसके बाद एरण (एरिकिण) के संबंध में कोई अभिलेखीय या मुद्राशास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं होती।

नर्मदा के काठे में विंध्य-सतपुड़ा उपत्यका के बीच इन्दौर-संभाग में प्राचीन 'दंगवाड़ा' की "डांगी-सभ्यता" वर्त्तमान 'उदयपुर' की आहाड़ नदी घाटी सभ्यता और 'एरण-सागर' की "दांगीवाड़ा" स्थित चम्बल-वेतवा नदी घाटी की 'डांगी सभ्यता और संस्कृति' से मेल खाती है। ये क्षेत्र आज भी "डांगी" बाहुल्य हैं। गौरतलब है कि इन तीनों क्षेत्रों के 'डांगी- सभ्यताओं' का मेल आधुनिक गुजरात के 'साबरमती-माही' तथा नर्मदा और ताप्ती नदी घाटी क्षेत्र के काठे में स्थित उस अति प्राचीन सभ्यता से है, जिसे "डांग-आह्वा" कहा जाता है। यहाँ आदिवासी, अनार्यों और आर्य दण्डको का पहले पहल मेल हुआ और यह स्थान दोनों सभ्यताओं का संगम स्थल बना।

सतपुड़ा-विन्ध्य घाटी स्थित साबरमती-माही और नर्मदा-ताप्ती नदी काठा वह सीमान्त क्षेत्र है: जहाँ मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र की सीमा एक दूसरे से मिलती है। यहाँ आज भी हजारों वर्ष पूर्व से बस रहे "डांगी-आदिवासी" के वंशज वास कर रहे हैं,जिनकी अपनी सभ्यता, संस्कृति और बोली भी है। 

‘डांग-आह्वा’ में बस रहे डांगियों के पूर्व राजाओं को अभी भी भारत सरकार की ओर से प्रतिवर्ष 'सालियाना' (पॉलिटिकल पेन्शन) अंग्रेजों के जमाने से दी जा रही है। यह पेन्शन उन्हें ब्रिटिश जमाने में डांगी राजाओं के साथ जंगल के अधिकार को सौंपे जाने के एवज में अनुबंध के तहत दिया जाता है। फिलहाल पांच डांगी राजाओं को प्रतिवर्ष आयोजित "डांग-दरबार-मेला" के अवसर पर 13.66 लाख रूपये का चेक सरकार द्वारा प्रदान किया जाता है। इसके अलावा नौ नायक, 674 बाहुबंद, 341 पुलिस पटेल तथा 311 कर भारियों को भी इस अवसर पर चेक प्रदान करने की परंपरा है। इस मेले के अवसर पर पारंपरिक "डांडिया-शौर्य-नृत्य" (डाँगियों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर का नृत्य)और रामायण पर आधारित ‘डांगी-तमाशा’ आदि का प्रचलन है।

यह क्षेत्र आदिवासी तथा सवर्ण हिन्दू जातियों के संगम स्थल के रूप में 'डांगी-बाहुल्य' क्षेत्र रहा है। यद्यपि कि इन क्षेत्रों का जनपदीय इतिहास अब कहीं इतिहास रूप में उपलब्ध नहीं मिलता, फिर भी भारतवर्ष की द्रविड़ सभ्यता काल से यह स्थल अधिक प्राचीन या समकालीन दीखता है। भारतीय आर्यों से भिन्न समस्त उत्तर पश्चिमोत्तर तथा मध्य भारत में बसने वाली प्राचीनतम अनार्य निवासी जैसे- भील, गेंड, शवर, नाग, किन्नर, थारू आदि जातियाँ दक्षिण के गुजरात से लेकर उत्तर में पंजाब, गढ़वाल एवं नेपाल तक फैली थी, जिनके साथ उस काल से ही 'दांगियों' का सामाजिक और आर्थिक सम्पर्क रहा। 

प्राचीन दण्डक जनपद के वर्णन क्रम में इतिहासकार श्री यमुना प्रसाद त्रिपाठी ने लिखा है कि प्राचीन काल से लेकर पूर्व मध्य एवं आधुनिक काल तक के समय में अभी भी समस्त 'दण्डक-जनपद' विस्तार क्षेत्र में दांगी भरे पड़े हैं। पं.ज्वाला प्रसाद मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘जातिभास्कर’ में डांगी क्षत्रियों को "सूर्यवंशी" बताया है। उन्होंने "डंगवाल- सूर्यवंशी "दांगियों" को दक्षिण महाराष्ट्र से गढ़वाल, नेपाल आदि क्षेत्रों में जाकर राज्य करने की बात कही है। 

‘राजस्थान थ्रू- द- एजेज’ के लेखक डा. दशरथ शर्मा ने "मल्लडांगी- मालवों" का स्थान-पंजाब मालव (अलवर के निकट) और मध्यप्रदेश उज्जैन- मालवा (सागर-विदिशा तथा उज्जैन के निकट) बताया है। उन्होंने कहा है कि प्राचीन काल से आज तक यह क्षेत्र ‘डाँग’ ही कहा जाता है।

गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा. जगदीश नारायण सिंह ने "दांग-राज्य" नेपाल के संस्थापक तथा महाभारत पर आधारित 'दंगीशरण-कथा' के नायक के बारे में लिखा है कि राजा "दंगी" के नाम पर ही यह क्षेत्र "दांग" अथवा "डांग" कहलाया। ‘दंगी’ नाम युद्ध कौशल के अर्थ का बोधक है, साथ ही इस कथा के नायक  "दंगीशरण" के धैर्य, साहस और ‘संकल्प’ आदि क्षत्रियोचित गुणों का भी बोध कराता है। आगे उन्होंने वीर राजा 'दंगीशरण' की महत्ता पर प्रकाश  डालते हुए कहा कि ‘दंगीशरण कथा’ न केवल एक लौकिक प्रबंध-काव्य या लोक-गाथा है, वरन् यह "महाभारत कथा" की कच्ची सामग्री उपस्थित की है, जो अति गवेषणीय है।’
 
Dang Desh Nepal King
"त्रिभुवन विश्वविद्यालय" काठमाण्डू, नेपाल के हिन्दी-शोध विभागाध्यक्ष डा. कृष्ण चन्द्र मिश्र ने 'दंगीशरण-कथा' के नायक राजा "दंगी" को नेपाल का प्राचीन "राजा" बताया है। उन्होंने कहा है कि 'नाथ-संतों' की अनेक रचनाएँ पश्चिम नेपाल के मठों और व्यक्त्तियों के पास सुरक्षित है। इनमें साम्प्रदायिक उपदेश तथा कुछ लौकिक अर्द्धपौराणिक कथाएँ भी हैं। 'योगी नरहरिनाथ' द्वारा सम्पादित "इतिहास प्रकाश" में इस तरह की रचनाओं के दो महत्त्वपूर्ण अंश पाये जाते हैं - एक ‘रतनबोध’ 

जिसमेे दांगियों के राजा "रतनसेन" की दीक्षा की कथा है तथा दूसरा ईसरदास कवि की ‘दंगीशरण-कथा’ है। सधुक्कड़ी अवधी भाषा में दोहा, चौपाई तथा छन्दों में लिखित यह रचना, काव्य और इतिहास की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि इसमें नेपाल में "दांग-राज्य" की स्थापना की कथा है। डा.मिश्र के अनुसार अति प्राचीन काल में ही नेपाल की तराई में ‘डाँग-राज्य’ की स्थापना हो चुकी थी,जिसका संबंध निश्चित रूप से विस्तार भारत के "दण्डक-जनपद" से था।


"द-ट्राइब्‌-एण्ड कास्ट्स ऑफ सेन्ट्रल-प्रौभिन्सेज के लेखक आर.भी.रसेल ने नेपाल  के "डांग-राज्य" का प्रथम राजा "महिपाल दांगी" को बताया है, जिसे श्री रसेल ने ‘निपल' या 'नेपाल’ से भी संबोधित किया है। राजा का शासन क्षेत्र‘दांगबाड़ी’ जनपद का निकटवर्ती प्रदेश अंकित किया है।

डा. राधा कुमुद मुखर्जी ने "पाणिनि" साहित्य के आधार पर 'रावी-व्यास-सतलुज काठे' में जालन्धर के निकट "षष्ट-त्रिगर्त" संघ के अंतर्गत "दण्डकि" नामक 'सायुधवार्तोपजीवी' उपसंघ का उल्लेख किया है। यह "दाण्डिकी" उपसंघ दण्डक अथवा 'दंगवै-वंशजों' का 'क्षत्रिय' संघ था। 

नृवंशीय अध्ययन के आधार पर समाज अध्ययन की दृष्टि से एक ओर जहाँ इस वंश के सामाजिक विकास का इतिहास 'आर्य-द्रविड़ प्राग्-ऐतिहासिक काल' से प्रारंभ होकर आधुनिक काल तक आकर समाप्त होता है, वहीं 'सांस्कृतिक एवं पुरातात्त्विक' दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सागर-एरण ‘दांगीवाड़ा’, इन्दौर-उज्जैन ‘दंगवाड़ा’, आयड-अहाड़ उदयपुर, लोथल, डांग-आह्वा गुजरात, रोपड़ पंजाब आदि प्राचीन "दंगवै-सभ्यता और संस्कृति" का पुरातात्त्विक इतिहास कम गवेषणीय नहीं है।

भारत के बाहर भी डांगी समाज की सभ्यता, संस्कृति और बोली व भाषा से जुड़े कई महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल हैं-उनमें ईरान की हेलमंद घाटी में "द्रँगियाना",पेशावर में काबुल के पास"यदु की डांग",नेपाल में "डांग-देवखुरी तथा मध्य एशिया में "दागिस्तान" आदि प्रमुख हैं। ये क्षेत्र डांगियों की प्रभाव वाले विकसित क्षेत्रों के रूप मे सदा प्रतिष्ठापित रहे हैं। 

"मध्य एशिया स्थित "दागिस्तान" में धर्म परिवर्तन करने के बाद भी "दांगी" अपनी प्राचीन गरिमा और परंपरा को कायम रखने में गौरव का अनुभव करते हैं। एक विदेशी लेखिका ‘रथ डैनीलाफ’ यहाँ की परंपरा पर टिप्पणी करते हुए लिखती हैं कि "चौहत्तर सालों तक कम्युनिस्ट व्यवस्था में रहने के बाद भी रूस के 'दागिस्तान' की महिलाओं की जिंदगी आज भी मध्ययुगीन ही है। वे बताती हैं कि ‘दागिस्तान' में कोई भी पुरूष ऐसी स्त्राी से कभी शादी नहीं करता जिसका कौमार्य नष्ट हो चुका हो।"

 "आज'दागिस्तानी'पुरूषों को जो स्वभाव से ही धार्मिक एवं परंपरावादी होते हैं,उन्हें महिलाओं का यों खुलेआम घूमना पसंद नहीं आता और अगर उनके सिर खुले हों तथा वे जीन्स या पैंट पहने हुए हों,तब तो उन्हें ऐसा लगता है,जैसे इन महिलाओं ने सारी परंपराओं को ही पलीता लगा दिया है। ऐसी महिलाओं में यदि उनकी या उनके किसी संबंधी की मंगेतर भी शामिल हों,तो निश्चय ही वे ऐसा दृश्य देखकर मंगनी तोड़ देने को बिफर उठेंगेे। इसी प्रकार पढ़ने-लिखने वाली अथवा मां-बाप द्वारा पसंद किये गये लड़के से शादी के लिए इन्कार करने वाली और श्रृंगार प्रसाधन करने वाली लड़कियों को भी वे सख्त नापसंद करते हैं। उनका कहना है कि दागिस्तान को अगर अपना अस्तित्व बचाये रखना है और मौजूदा ऊथल-पुथल के भयंकर दौर में पड़ोसी आर्मीनिया, जार्जिया अथवा अजरबैजान की तरह बेकार के खून-खराबे से बचना है, तो उसे जान देकर भी अपनी परंपराओं की रक्षा करनी होगी।"

"प्रख्यात नृकुल विज्ञानी डा0 मगोमेदखानोव के अनुसार भी ‘पारंपरिक नियमों के अनुरूप महिलाओं को घरेलू मामलों की अच्छी शिक्षा मिलनी चाहिए, अगर उनके पास विभिन्न विषयों की बीस डिग्रियाँ या डिप्लोमा भी हो, तो घरेलू काम-काज से छुट्टी नहीं पा सकती।"

तात्पर्य यह कि दांगियों के देशी-विदेशी राज्य, उपनिवेश या बसागत भिन्न-भिन्न कालों में विभिन्न स्थलों में विकसित होते रहे हैं और उनके संबंध भी किसी न किसी रूप में बने रहे हैं। यही कारण हैं कि सागर के राजा ‘नेपाल के राजा’ और नेपाल 'डांग-देवखुरी' के राजा‘सागर के राजा’के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। नेपाली वंशावली के अनुसार नेपाल का इतिहास वहाँ के वंशधर डांगी राजा "महिष्पाल" से आरंभ होता है,जो नेपाली तथा संस्कृत के ‘दंगीशरण कथा’, बंगाल के ‘दण्डी पर्व’, मराठी के ‘डंगवै पुराण’, गुजराती के ‘डांगवी आख्यायन’ आदि के नायक है। 

"विश्व-हिन्दी भाषा-अधिवेशन" में ‘हिन्दी साहित्य को नेपाल की देन’शीर्षक निबंध पाठ में नेपाल देश की ओर से प्रतिनिधित्व कर रहे 'त्रिभुवन विश्वविद्यालय,काठमाण्डू'नेपाल के प्राध्यापक डा.कृष्ण चन्द्र मिश्र ने ‘दंगी-शरण कथा’ के नायक राजा "दंगी शरण" की पौराणिकता का उल्लेख करते हुए उन्हें नेपाल का 'आंचलिक प्राचीन-राजा' बताया है।

भारत में"दण्डक-जनपद"से जुड़े'दांगी-वंश' के राजाओं ने पंजाब, पेशावर, ईरान, अफगानिस्तान, दागिस्तान से लेकर गढ़वाल, नेपाल तक विभिन्न नामों से अलग-अलग राज्य सीमाओं में राज्य करते रहे हैं। उसी प्रकार राजस्थान, गुजरात, मध्यभारत, बुंदेल खण्ड, मालवा, यू. पी., बिहार, झारखंड, उत्तराखण्ड, हिमाचल, पंजाब आदि जगहों में भी विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न नामों से विभिन्न राज्य सीमाओं के बीच राज्य करते हुए अपनी सभ्यता, संस्कृति और बोली को भी अक्षुण्ण बनाये रखने में समर्थ रहे हैं। इनकी अपनी बोली है जो ‘डांगी बोली’ कही जाती है। इम्पीरियल गजेटियर के अनुसार राजस्थान में करौली राज्य चम्बल नदी और जयपुर के बीच में है। पहाड़ियों और उबड़-खाबड़ जमीन के क्षेत्र का स्थानीय नाम ‘डाँग’ है। वैसे यह नाम चम्बल की सकरी घाटी के ऊपर वाले बीहड़-प्रदेश को दिया गया है। राजस्थान की बीहड़ पहाड़ी भी डाँगी/दाँगी का क्षेत्र है। "डांग" अपनी बोली सहित करौली राज्य की सीमाएँ पार कर भरतपुर राज्य की वयाना तहसील के उत्तर में तथा इसी राज्य के दक्षिण में और जयपुर के पश्चिम में विस्तार पा गयी है। जयपुर राज्य में वास्तविक डाँगी बोली के अतिरिक्त उसके रूपान्तर भी मिलते हैं, जिन्हें डूंगरवाड़ा, कालीमाल तथा डाँगी-बोली जयपुर की डाँगी-बोली से काफी मिलती-जुलती है। फिर भी वह अपने बिल्कुल उत्तर में बोली जाने वाली ब्रजभाखा से दृढ़तर संबंध रखती है। डाँगी-बोली के राजस्थानी में परिवर्तित होने की प्रक्रिया में ब्रजभाखा के तत्त्व सम्मिलित होते हैं। गुजराती का व्याकरणिक तत्त्व जयपुर की ‘डाँगी-बोली’ में मिलती है।

जयपुर की वास्तविक डांगी बोली भरतपुर तथा करौली की सीमाओं पर राज्य के उत्तर-पश्चिमी कोने में प्रचलित है। वास्तविक डांगी बोली के पश्चिम में अलवर की दक्षिणी सीमा के साथ-साथ एक मिश्रित बोली का व्यवहार होता है, जिसके माध्यम से डांगी बोली क्रमशः जयपुरी बोली में परिवर्तित हो जाती है।

"लिंगविस्टिक-सर्वे ऑफ इण्डिया"में‘द-व्हील लैंग्वेजेज’के अंतर्गत "दांगी" शीर्षक से ग्रियर्सन ने ‘डांग-स्टेट’ की चर्चा विस्तार से की है, जो 'खान-देश' के पश्चिमी छोर पर थी।

डॉ. ग्रियर्सन ने करौली भरतपुर में जिस "डांगी- भाषा" का उल्लेख किया है, उसकी पुष्टि जी. आर. मैकालिस्टर तथा डा. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय ने भी किया है। डा. भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी ने 'महेश्वरी' और 'बुन्देली-लिपि' के साथ "दांगी-लिपि" की भी चर्चा की है। यों तो डांगी बोली या परिवर्तित बोली का प्रयोग लोग करते हैं। हिन्दी और "डांगी- बोली" में भिन्नता के कुछ नमूने इस प्रकार हैं  : - -

यथा--- चार-च्यारि, छः-छुई, आठ-अठ, सौ-सैका, लोहा-लंकर, पिता-दाजू, माँ-बैया, भाई-भिआ, बहन-भैेना, स्त्री-लुगाई, पुत्र-मोड़ा आदि।

  डांगियों की कतिपय अन्य ऐतिहासिक उपलब्धियाँ विभिन्न अभिलेखों के आधार अति महत्त्वपूर्ण मानी गई हैं, वे निम्नलिखित हैं:- 

(1) यूनानी विश्व विजेता सिकन्दर महान् के सपनों को ‘डांगी-मल्ल’ सूर्यवंशियों ने ही ध्वस्त किया था।

(2) महाराष्ट्र(मुंबई), गुजरात, राजस्थान अभिलेख के अनुसार तीसरी -चौथी शताब्दी में पश्चिमोत्तर भारत के पंजाब, राजस्थान पर बार-बार शक आदि विदेशियों द्वारा आक्रमण किये जाने पर ‘डांगी-कुणवियों’ ने ही उन्हें भारत से बाहर खदेड़ा था।

(3) सातवीं शताब्दी में सिन्ध पर अरब के मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा हमला किए जाने पर उन्हें भी डांगियों ने ही भारत से बाहर भगाया था।

इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इतिहासविद् डा.महेश तिवारी ने 'डांग' अथवा "डाँग-राज्य" तथा दांगियों से संबंधित सभ्यता एवं संस्कृति का अध्ययन हेतु इतिहास के अध्येयताओं के लिए इसे शोध का एक दिलचस्प विषय माना है।
 
इस प्रकार भारतीय संस्कृति पर "डांगी समाज" का व्यापक प्रभाव पड़ा है। यही कारण है कि दांगियों की व्यापकता की छाप हिन्दू के चारों वर्णों में मिलती हैं। एक ओर जहाँ दण्डोतिया ब्राह्मण- गढ़वाल, नेपाल में, तो डांगी-वैश्य- ओसवाल जैन- राजस्थान में। डांगी-आदिवासी गुजरात में, तो डांगी-जाट- हरियाणा और पंजाब में। डांगी-ढोली शूद्र- राजस्थान में, तो डांगी-मुसलमान  यू.पी.,ईरान,अफगानिस्तान, दागिस्तान आदि में, वही "दांगी-क्षत्रिय" सर्वत्र भारत और विदेशों में पाये जाते हैं।

संदर्भ :

1. लोक भारती प्रामाणिक हिन्दी कोश: आचार्य रामचन्द्र वर्मा एवं डा. बदरी नाथ कपूर -पृष्ठ - 891.

2. तथैव पृष्ठ - 891.

3. बुन्देलखण्ड की प्राचीनता - डा॰ भगीरथ प्रसाद त्रिपाठी, पृ0- 25-27.

4. ब्रह्माण्ड पुराण - 02/16/58.

5. मत्स्य पुराण - 114/48.

6. मार्कण्डेय पुराण - 57/47.

7. वायु पुराण - 45-126.

8. प्राचीन भारत, प्रथम खण्ड- लेखक डा॰ उपेन्द्र ठाकुर एवं डा॰ महेश कुमार शरण- अध्याय-1, पृ0 -5.

9. तथैव.

10. प्राचीन दण्डक जनपद आधुनिक दांगवाड़ा, लेखक-- डा॰ जनक प्रसाद सिन्हा ‘जनक’,पृष्ठ-4.

11. जमीन में दबा चार हजार वर्ष पुराना नगर , लेखक-- एम.के. माहेश्वरी, नई दुनिया दैनिक, इन्दौर (म.प्र.) दिनांक- 10 अगस्त, 1989.

12. एम.एल.राणावत- नई दुनिया दैनिक --20 अगस्त, 1996, पृ॰-10.

13. दंगवाड़ा- उत्खनन - पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म.प्र.)|

14. तथैव.

15. Habitat economy and society : A study of the Dangis , by--A.N.Bhattacharya & Ravindra Nath Vyas, Concept Publishing Company, New Delhi.1979.

16. भारतीय वाड्य़मय में दंगवै साहित्य, समाज और संस्कृति: शोधकर्ता - -डॉ. जनकनन्दन प्रसाद सिन्हा, पृष्ठ - 116,1994.

17.'एरण- उत्खनन' प्रोफेसर तथा अध्यक्ष प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति तथा पुरातन विभाग, सागर विश्वविद्यालय, सागर ( म.प्र.)- डा. के.डी. वाजपेयी ।

तथा

Indian Archaeological Report 1960-65 तथा Bulletin of Ancient Indian History & Archaeology- 1967. पृ.-30.

18. एरण का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास, लेखक-चन्द्रलेखा द्विवेदी, पृष्ठ-12.

19. डांग एक सम्यक् दर्शन- ले०- श्री दत्तात्रेय भाष्कर शितले, गुजरात।

20. Dang's Darbar Opens Amid, Fanfare At AHWA: Times of India.--01.03.1999.

21. 'साहित्य लोक'पत्रिका, संपादक- डा० कृष्णचन्द्र मिश्र, त्रिभुवन विश्वविद्यालय ,हिन्दी विभाग,कीर्तिपुर कॅम्पस, काठमांडू , नेपाल, पृष्ठ- 11.

22. The Tribes & Castes of Central Provinces. by- R. N. Russells, London, 1916).

23. भारतीय वांड्म्य का विकास, लेखक- डा. जनक नंदन प्रसाद सिन्हा, पृष्ठ- 15,16.

24. दागिस्तान : आजादी की दौड़ में पीछे , लेखक- रथ डैनीलाफ, पेज- 51.

25. तथैव, पृष्ठ- 52

26. भारत और नेपाल का दांग राजवंश : लेखक- जनक नन्दिनी प्रसाद सिंह, 'साहित्य लोक' पत्रिका, त्रिभुवन विश्वविद्यालय ,काठमाण्डो, नेपाल।

27. Linguistic Survey of India. Sir G.A. Grierson . केन्द्रीय वर्ग (पश्चिमी हिन्दी) ,पेज- 51

28. Speciments of the Dialects Spoken in the State of Jeypore. by -Sir G.R. Macale.

29. Linguistic Survey of India by -Sir G.A. Grierson (Vol. IX, Part- III)

30. Speciments of the Dialects Spoken in the State of Jeypore, by -Sir G.R. Macalister.

दांगी वंशावली  ?

          दांगी वंशावली
         (प्राचीन इतिहास)

प्राचीन कथानुसार सृष्टि का आरंभ मनु एवं शतरूपा नामक कन्या से हुआ। मनु के द्वारा सृष्टि की रचना होने से मनु के नाम पर "मनुष्य" कहलाया। ब्रह्मा ने इस प्रकार 20 पुत्र पैदा किये और सबों को तपस्या करने के बाद सृष्टि की रचना करने की आज्ञा दी। इससे कुछ पुत्र तपस्या के प्रभाव से विरक्त हो गये और संताने पैदा नहीं की, किन्तु कुछ पुत्रों ने संताने पैदा की जो इस प्रकार हैं:---

1. रूद्र (शंकर)- उनसे गणेश एवं कार्तिकेय।

2. धर्म-विरक्त हो गए।

3. धाता- "

4. विधाता - "

5. सनक - "

6. सनातन- "

7. सतानन्द- "

8. संतकुमार- "

9. नारद - "

10. कन्दर्प- इनसे 'देवहुति' नामक भार्या से 'कपिल' एवं नौ कन्याएँ उत्पन्न हुई, जो ऋषियों को व्याही गई।

11. मरीचि- 'कला' नाम भार्या से 'कश्यप' उत्पन्न हुए।

12. अत्रि-"अनुसूईया' नामक भार्या से दत्तात्रेय, दुर्वासा तथा चन्द्रमा उत्पन्न हुए।

15. अंगिरा- 'मेघा' नाम भार्या से वृहस्पति, उतथ्य तथा संवत् उत्पन्न हुए।

14. पुलस्त्य-'हवि' नाम भार्या से अगस्त तथा विश्रवा उत्पन्न हुए।

15. पुलह- 'गति' नाम भार्या से तीन पुत्र उत्पन्न हुए।

16. भृगु- 'ख्यात' नाम भार्या से "शुक्राचार्य "उत्पन्न हुए।

17. वशिष्ठ- 'अरुंधति' नामक भार्या से आठ पुत्र पैदा हुए।

18. केतु- 'योग' नाम भार्या से चालखिल्य मुनि उत्पन्न हुए।

19. अथर्वण-'शान्ति' नाम भार्या से 11 पुत्र उत्पन्न हुए।

20. दक्ष- 'प्रसुति' नाम भार्या से 50 कन्यायें उत्पन्न हुई, जो 27 चन्द्रमा से, 10 धर्म तथा 13 कश्यप जी से व्याही गई।

'कश्यप' जी के पुत्र 'विवस्वान्' हुए जो "सूर्य" भी कहलाये। इनकी माता 'अदिति' थी। सतयुग में यही प्रथम राजा हुए। इन्हीं के नाम पर "सूर्यवंश" चला।

वैवस्त मनु के पुत्र "इक्ष्वाकु" बड़े प्रतापी राजा हुए, जिनके 100 पुत्र थे। उनमें तीन बडे़ ,सुयोग्य एवं प्रतापी पुत्र हुए - (1) विकुक्षि (2) निमि एवं (3) दण्डक । इन्हीं तीन क्षत्रियों के नाम मुख्य वंश परिचालित हुए। महाराजा 'इक्ष्वाकु' ने अपने इन पुत्रों को तीन स्थानों में राज्याभिषेक किया।

     प्रथम ज्येष्ठ पुत्र 'विकुक्षि' को अपने 'अयोध्या' का राज सौंपा जो ये "सूर्यवंशी" राजा कहलाये। दूसरे पुत्र 'निमि' को पूरब का राज्य दिया, जिसे निमि ने अपने पुत्र 'मिथि' के नाम पर "मिथिलापुरी" (जनकपुर) बसाकर राज किया। राजा निमि "विदेह-राज" भी कहलाए। तीसरे पुत्र "दण्डक" जो अति तेज़, बलवान एवं तीक्ष्ण बुद्धि के थे,उन्हें दक्षिण-पूर्व वन-प्रांतर 'मध्य-भारत' का विशाल राज्य दिया। इनके वंशज दांगी, डांगी, दंगी (दण्डवंशी) कहलाए। शेष पुत्रों को महाराजा इक्ष्वाकु ने इन्हीं तीन पुत्रों के अधीन राज करने को कहा। 'सतयुग' तथा 'त्रेता युग' में इन्हीं तीनों वंशजों के राजा राज करते रहे।

विकुक्षि वंश- महाराज इक्ष्वाकु ने विकुक्षी वंश को अयोध्या का राज दिया। इन्होंने अपने नाम पर 'विकुक्षि वंश' चलाया। इसी वंश में राजा रघु तथा श्रीराम पैदा हुए। भगवान "श्रीराम" वैवस्वत मनु से लेकर उनकी 54 वीं पीढ़ी में उत्पन्न हुए। अवध राज्य “अयोध्या” अब तक बड़ा प्रसिद्ध रहा। राम के बाद उनका राज्य कई भागों में उनके पुत्रों तथा भतीजों के बीच बँट गया। अयोध्या में राम के पुत्र कुश राज्य करते थे। कुश ही से अवध का मुख्य वंश चला। कुश के बाद अवध राज्य चक्रवर्ती राज्य से 'मांडलिक' राज्य बन गया।

निमि वंश - इक्ष्वाकु के द्वितीय पुत्र 'निमि' ने अपने पुत्र मिथि के नाम पर "मिथिलापुरी" बसाकर राजधानी बनायी। राजा निमि को 'विदेह' की पदवी थी, इस कारण इनके वंशज 'विदेह राज' कहलाये। राजा निमि के नाम पर 'निमि वंश' चला। राजा जनक इसी वंश में हुए, जिनकी पुत्री "सीता" थी।

दण्ड वंश- राजा इक्ष्वाकु के तीसरे पुत्र "दण्डक" को दक्षिण-पूरब का राज मिला। उन्होंने विन्ध्य पर्वत की दो पहाड़ियों के बीच "मधुमत" में 'दंडकपुरी' नाम का नगर बसा कर अपनी राजधानी बनायी तथा उसके नाम पर 'दण्डवंश' चला। ---(वंशभाष्कर)

 सतयुग तथा त्रेता युग में इन्हीं तीनों वंशजों के राजा राज्य करते रहे। बाद राजा 'रघु' के नाम पर "रघुवंश" चला, जिसमें पुरूषोत्तम राम, भरत, शत्रुघ्न एवं लक्ष्मण हुए। इन सभी भाइयों के पुत्रों का भी वंश चला। श्रीरामचन्द्र के पुत्र लव से लववंश, कुश से कुशवंश, भरतपुत्र तक्षक से तक्षक वंश एवं पुष्कल से पुस्कल वंश चला। इसी प्रकार लक्ष्मणपुत्र अंगद से अंग वंश एवं चन्दकेतु से चन्द्र वंश चला।
   ब्रह्मा पुत्र अत्रि से ,'चन्द्रमा' नामक पुत्र हुए,उनसे'चन्द्रवंशी वंश'चला। महाराजा ययाति के ज्येष्ठ पुत्र यदु से 'यदुवंश' चला । 
इस प्रकार क्षत्रियों के कुल 36 वंश प्रधान हैं:- जिसकी एक कहावत है-

"दस रवि, दस चन्द्र सो, द्वादस ऋषि प्रमाण ।

चार हुतासन सो भयो, वंश छत्तीस बखान ।" ---- क्षत्रिय वर्तमान |

  सूर्यवंश की 10 शाखाएँ:- (1) सूर्यवंश (2) दण्ड वंश (दांगी वंश) (3) रघु वंश (4) लव वंश (5) कुश वंश (6) पुष्कर वंश (7) अंग वंश (8) निकुम वंश (9) शाक्य वंश (10) वल्लभ वंश ।
  चन्द्रवंश की 10 शाखाएँ :- (1) सोम वंश (2) पुरू वंश (3) यदु वंश (4) चेदी वंश (5) कौरू वंश (6) पांडव वंश (7) वृष्णवंश (8) भोज वंश (9) मधु वंश और (10) सूरसेन वंश |

ऋषिवंश की 12 शाखाएं:- -(1) निमि वंश (2) भृगं वंश (3) गौतम वंश (4)कौशिक वंश (5) तक्षक वंश (6) गौड़ वंश (7) पुरूमीट वंश (8) अजमीठ वंश (9) गुप्त वंश (10) श्रृंगी वंश (11) कण्व वंश (12) अत्रि वंश ।

  हुतासन:- (यज्ञ वंश) की 4 शाखाएं:-  (1) परिहार वंश (2) सोलंकी वंश    (3) परमार वंश (4) चौहान वंश।

संदर्भ

1. वंशभाष्कर, पं० ज्वाला प्रसाद मिश्र ।

2. क्षत्रिय वंशावली, ले० - श्री शत्रुघ्न सिंह दांगी, सुप्रभात प्रेस, गया , वर्ष.1961

3. दांगी क्षत्रिय वंशावली ठाकुर लक्ष्मी नारायण सिंह, कामद, दतिया (म०प्र०)

सतयुग के राजा दण्ड?

पौराणिक दण्डकारण्य राज्य एवं वहाँ के महाप्रतापी शासक राजा दण्ड के सम्बन्ध में पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में एक विवरण है। सूर्यवंशी नरेश दशरथ पुत्र रामचन्द्र के प्रश्नों का उत्तर देने के क्रम में अगस्त मुनि कहते हैं- "राजन, पूर्व काल के सत्ययुग की बात है। वैवस्त मनु इस पृथ्वी पर शासन करने वाले प्रथम राजा हुए। उनके पुत्र इक्ष्वाकु थे। इक्ष्वाकु बड़े ही सुन्दर थे। उन्होंने नाना प्रकार के शास्त्रीय कर्म , यज्ञ आदि किये और अनेक पुत्रों की प्राप्ति हुई।

"इक्ष्वाकु के पुत्रों में जो सबसे छोटे धे, वे गुणों में सर्वश्रेष्ठ, शूर और विद्वान थे। प्रजा का आदर करने के वाले थे। इस कारण वे सबों में विशेष आदर के पात्र हो गये। उनका नाम ‘दण्ड' था। उन्हें विन्ध्य श्रणी के दो शिखरों के बीच में एक नगर मिला। उस नगर का नाम "मधुमत नगर" था। धर्मात्मा दण्ड ने इसे अपनी राजधानी बना कर वहाँ बहुत वर्षों तक अकण्टक राज किया।"

प्राचीन काल में लगभग ई. पू. 4762 ( भारतीय ज्योतिषीय गणना के आधार पर ) के आस पास भारत में "दण्डकारण्य" महाजनपद था। जिसका उल्लेख ब्रह्माण्ड (2/16/58), मत्स्य (114/48), वायु (45/124/126 ) एवं मार्कण्डेय (57/47) पुराणों में हुआ है। पौराणिक दण्डक राज्य वर्तमान गुजरात राज्य के साबरमती, माही और नर्मदा क्षेत्र में स्थिर था। आदिवासी डांगियों का "डांग" जिला भी उसी का अंग था। भारी शत्रुओं के आक्रमण एवं प्राकृतिक आपदा के फलस्वरूप समस्त दण्डक राज्य, शासन एवं राजपरिवार के लोग अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित एवं स्थानांतरित हो गये। उनमें बहुत से लोग विनष्ट भी हो गये। दाँगी जाति का इतिहास ही आक्रमण, प्रत्याक्रमण एवं संघर्षो का इतिहास रहा है, जिसे पहचानने एवं चिन्हित करने की आवश्यकता है।

'पद्मपुराण' में इस घटना को प्रतीकात्मक, साहित्यिक एवं अलंकारित रूप देते हुये, इसे ऋषि शाप के रूप में उल्लेख किया है। शाप से वन विनाश नहीं हो सकता। वस्तुतः ऋषि शाप आर्य भिन्न जाति समूह अथवा असुरों के आक्रमण का प्रतीक है ।

"दण्डकारण्य-क्षेत्र" एवं विन्ध्य पर्वत के दक्षिण आर्यों के प्रसार के समय उन्हें आर्य भिन्न जातियों एवं असुरों से संघर्ष करना पड़ा था। शुक्राचार्य द्वारा दण्डक राज्य के विनाश का उल्लेख एक रहस्यात्मक पहलु मात्र है।

शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु थे। अतः ऋषि शाप निश्चय ही दण्डक जनपद पर असुर आक्रमण का प्रतीक मात्र था। सच तो यह है कि ऋग्वेद में वर्णित देवासुर संग्राम का दौर किसी न किसी रूप में उत्तर वैदिक काल (राजा दण्ड के राजत्व काल) तक चल रहा था। शुक्राचार्य असुरों से स्नेह भाव रखते थे और उनकी रक्षा भी करते थे। देवासुर संग्राम में उन्होंने असुरों का साथ दिया था। शिव पुराण (रुद्र संहिता, पंचम युद्ध खण्ड) में स्पष्ट उल्लेख है कि देवासुर संग्राम में असुरों का पक्ष लेने के कारण शिव ने क्रुद्ध होकर शुक्राचार्य को निगल कर उदरस्थ कर लिया था। अतः दण्डकारण्य राज्य के अव्यवस्थित होने का कारण असुरों व दैत्यों का आक्रमण था, जिसका मूल कारण देवासुर संग्राम से उत्पन्न विद्वेष की भावना थी। हरा भरा दण्डकारण्य राज्य के विनष्ट होने एवं वहां के अधिवासियों द्वारा राज्य छोड़कर राज्य सीमा से बाहर पलायन करने का संकेत पुराणों के साथ-साथ रामायण से भी मिलता है।

ऐसा लगता है कि रामायण काल आते-आते विनष्ट दण्डकारण्य पुनः वनाच्छादित हो गया था। चूंकि, दण्डकारण्य के गोदावरी तट पर "पंचवटी-वन" में ही श्री राम ने एक लम्बे काल तक वनवास की अवधि बितायी थी। इसी बीच शूर्पनखा के नाक कटे थे , खरदूषण का वध हुआ था और सीता का हरण हुआ था।

"दण्डक वन पुणित प्रभू करहूँ। उग्र शाप मुनिवर कर हरहूँ।।

रामचरित मानस की उपर्युक्त पंक्तियों से दण्डकारण्य के विनाश की सूचना मिलती है। उपर्युक्त सभी पौराणिक विवरण "दण्डक-राज्य" एवं राजा "दण्ड" की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं। पुराण वस्तुतः प्रागैतिहासिक काल का इतिहास है। भारतीय प्राक् इतिहास काल में वर्णित "दण्डकारण्य-राज्य" ही अति प्राचीन काल या भारतीय प्राक्-ऐतिहासिक काल में कभी "दण्डकारण्य-महाजनपद" था, जहाँ के राजा दण्ड थे। राजा दण्ड के वंश या कुल में अनेक प्रतापी राजा हुये, जिनका कथा-विवरण पुराणों एवं विभिन्न भाषाओं में रचित मध्यकालीन कथा-काव्यों में बहुताएत से मिलती है।

संदर्भ :

1. पद्मपुराण सृष्टि खण्ड, पृ०- 120, अनुवाद गीता प्रेस, गोरखपुर।

2. दांगी समाज एवं साहित्य एक अध्ययन, लेखक- महेन्द्र सिंह दांगी, वर्ष 2004.

3. रामचरित मानस (अरण्य काण्ड)

4. वायु पुराण (1/2/53)

5. मत्स्य पुराण (53/3)

दांगी-सभ्यता?

अन्वेषणों एवं खोजो के आधार पर विद्वानों का मत है,कि डांगी/दाँगी एक जाति नहीं, बल्कि एक सभ्यता थी। शोधकर्ता डॉ.जनकनंदन प्रसाद सिंह ने अपने ग्रंथ में डांग/दांग सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, डांग-भाषा और डांगी-लिपि पर अपने अन्वेषणों का उल्लेख किया है। उनका शोध हिन्दी-अवधी साहित्य का एक अमूल्य शोध-ग्रन्थ है। माना जाता है कि 'दांग-डांग' सभ्यता का भौगोलिक विस्तार मूल "दण्डकारण्य" क्षेत्र से लेकर भारत के महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, पंजाब, राजस्थान, कश्मीर, तेलंग, अंग, बंग, सौराष्ट्र आदि तथा भारत से बाहर नेपाल, पश्चिमोत्तर भारत (पाकिस्तान) अफगानिस्तान, हेलमन्द घाटी 'द्रंगियाना' (ईरान) 'दागिस्तान'(रूस)आदि सुदूर क्षेत्रों तक फैला था।

राजा दण्ड का राज्य "दण्डक-राज्य" कहलाता था। महाराजा दण्ड का राज्य जो जांगल-प्रदेश का 'डांग-प्रदेश' जंगली-पहाड़ी था, वहाँ के निवासी "डांगी" या "दांगी" कहलाते थे। जिस प्रकार भारत के निवासी भारतीय, मालवा के मालवी, विदर्भ के वैदर्भ, उसी प्रकार दण्डक राज्य के सभी अधिवासी "डांगी" या "दांगी" कहलाये।

कालान्तर में भौगोलिक एवं राजनैतिक उथल-पुथल के फलस्वरूप दण्डक राज्य के निवासी डांगी और वहाँ के दंण्डवंशी दांगी दोनों ही भारत के विभिन्न भागों एवं भारत की सीमा से बाहर भी 'द्रंगियाना' (ईरान), काबुल (अफगानिस्तान), 'दागिस्तान' (रूस का एक प्रदेश) और नेपाल तक फैल गये तथा वहां उन्होंने अपनी "डांग सभ्यता, संस्कृति और बोली" विकसित की, जो राजस्थान के जयपुर, अलवर, भरतपुर, करौली आदि क्षेत्रों की स्थानीय बोली "डांगी" ही बोली है। उसी तरह गुजरात के 'डांग-आह्वा' की बोली (भाषा) 'डांगी-तमासा' है।

राजा दण्ड कुल से उत्पन्न डांगियों के अतिरिक्त प्राचीन 'दण्डक राज्य' के निवासी "डांगी" भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न नामों से फैले हुये पाये जाते हैं, जिनके आस्पद (पदवी) दांगी ही हैं, परन्तु वे दण्डवंशी दांगी जाति के नहीं हैं, बल्कि वे "दण्डकारण्य राज्य" के अधिवासी होने के कारण 'डांगी' कहलाने वालों के वंशज हैं और वे भी अपने नाम के साथ दांगी या डांगी पदवी लिखते हैं। ऐसे लोगों में 'डांगी-खत्री'- राजपुताना, पंजाब, 'दांगी-ओसवाल जैन-धर्मावलंबी'- राजस्थान, गुजरात,मध्यप्रदेश आदि, भाट-दांगी (मध्यकालीन चारण) राजस्थान, मध्यप्रदेश,'दण्डौतिया-ब्राह्मण'-यू.पी., 'डोंगरे-ब्राह्मण'- कश्मीर,पंजाब आदि लोग आते हैं। इनमें बहुतायात लोग दण्डवंशी दांगियों की तरह ही अपने नाम के साथ 'दांगी' पदवी(आस्पद) जोड़ते हैं।

"दण्डक राज्य" के उपर्युक्त अन्य दांगी अधिवासियों की तरह ही दण्डवंशी इक्ष्वाकु दांगी वंशज (जो भारत की वर्तमान दांगी जातियों के पूर्व पुरुष थे) भी भारत के विभिन्न भागो में फैल गये और उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया। यथा-राजस्थान (मत्स्य),मध्यप्रदेश (मालवा),बुन्देलखण्ड (पुलिंद) विदिशा-दंगवाड़ा ( एरण-सागर), डांडकी (मध्य भारत में स्थिर पौराणिक काल का एक गणराज्य), नेपाल का "डांग" राज्य, जो आगे चलकर "बाईसी- डांग" राज्य इत्यादि विभिन्न नामों से सम्बोधित होकर इसी राजा (राजा-दण्ड) और राजवंश का शासन समय समय पर न्यूनाधिक सीमा के अन्तर्गत चलाते रहे।

'प्राचीन राजस्थान के इतिहास' लेखक- डॉ.दशरथ शर्मा ने मल्ल (मालव दांगी) सूर्यवंशियों के शासन का उल्लेख विस्तार से किया है । उनका राज्य- हिमालय अंचल स्थित यमुना काठे के बुंदेलखण्ड से लेकर अयोध्या के उत्तर हिमालय की तराई तक था। उन्होंने (डॉ. दशरथ शर्मा) "मल्ल-दांगी" मालवों के स्थान भी बतलाये हैं,यथा :- (1)पंजाब-मालवा(पटियाला-फिरोजपुर के निकटवर्ती क्षेत्र) (2) राजस्थान मालवा (उदयपुर क्षेत्र) (3) मालवा उनियारा (अलवर के निकटवर्ती क्षेत्र)(4) मध्यप्रदेश उज्जैन-मालवा (सागर-विदिशा-उज्जैन के निकटवर्ती क्षेत्र) ।

प्राचीन काल से लेकर आज तक उक्त प्रदेश "डांग" ही कहलाता है। वास्तव में मालव दण्डक कुल उत्पन्न 'सूर्यवंशी' दांगी थे। आज भी राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में दांगियों का एक गोत्र "मालवी दांगी" या "माल्या दांगी" गोत्र कहलाता है।

डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी लिखित 'मौर्यकालीन इतिहास' के अनुसार पंजाब के काठे में "दाण्डकी" उपसंघ का "षष्टत्रिगर्त" के साथ उल्लेख मिलता है। पुनः ईरान की हेलमन्द घाटी में "द्रंगियाना" की चर्चा तथा पेशावर में काबुल के पास ‘यदु की डांग' का उल्लेख है। संदर्भ : 1. भारतीय वांङ्म़य में दांगी सभ्यता संस्कृति एवं साहित्य, लेखक- डा० जनकनन्दन प्रसाद सिंह । 2. दाँगी समाज एवं साहित्य: एक अध्ययन, लेखक- महेन्द्र सिंह दाँगी,वर्ष 2005. 3.राजस्थान का इतिहास, लेखक डॉ० दशरथ शर्मा। 4.मौर्यकालीन इतिहास,लेखक-डॉ० राधा कुमुद

मुखर्जी।

चार हजार वर्ष पुराना दांगी-नगर?

मध्यप्रदेश के उज्जैन से 26 कि.मी. दूर बड़नगर-उज्जैन रोड पर स्थित एक गांव 'दंगवाड़ा' है। चम्बल नदी की गोद में बसे इस ग्राम के पश्चिमी छोर पर एक निर्जन टीला है, जो लगभग चार हजार वर्ष पुरानी एक विकसित सभ्यता और संस्कृति को अपनी थाती में संजोए हुए है। "जनश्रुतियों के अनुसार यहां “दंग” नामक राजा राज्य करता था, तार्किक दृष्टि से गांव का नाम इसकी पुष्टि करता है, पर प्रमाणों के अभाव में इस संबंध में इतिहास मौन है। संभव है ये कोई स्थानीय शासक रहा हो, जिसे इतिहास तो स्थान न दे सका पर गांववासियों ने हजारों वर्षों के बाद भी अपने हृदय में इसे स्थान दे रखा है।"-एम.के.माहेश्वरी।

ताम्राश्मयुगीन संस्कृति ?

जिस युग में मानव ने ताम्र (तांबा) एवं अश्म (पत्थर) के उपकरणों के प्रयोग द्वारा अपनी जीवन पद्धति का निर्धारण किया, उस युग की यही जीवन-शैली पुरातत्त्व में 'ताम्रश्मयुगीन-संस्कृति' के नाम से जानी जाती है। "दंगवाड़ा" की सर्वप्रथम सभ्यता यही थी,जो विभिन्न रूपों में यहां की टीलों के उत्खनन से प्राप्त हुई है। दाँगियों की प्राचीनतम सभ्यता यही थी। दांगियों की प्रथम सभ्यता:

मिट्टी के पात्रावशेषों के अलावा इस युग के अन्य कोई प्रमाण-उत्खनन में प्राप्त नहीं हुए हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि यहां के निवासियों ने किसी प्राकृतिक या मानवी विपदा से यह स्थान छोड़कर अन्यत्र चले गए हों । साथ ही स्थान परिवर्तन के साथ-साथ अपनी संपूर्ण प्रायोगिक सामग्री भी साथ लेते चले गये होंंगे। यह भी संभव है कि चार हजार वर्ष की दीर्घावधि में विनाशमयी शक्तियों ने ही इन प्रमाणकों को अपने में विलीन कर लिया हो। कयोंकि, इस सभ्यता के अवशेष मालवा की प्राकृतिक काली मिट्टी के साथ ही प्राप्त होते हैं। यह तथ्य अनेक ग्रामों के सर्वेक्षणों से उदघाटित हुआ है। इस सभ्यता के चिन्ह दो स्तरों में विद्यमान मिले हैं- प्रथम पूर्णरूप से कायथा में, जबकि द्वितीय कायथा के साथ अहाड़ की सभ्यता में समाविष्ट है। इसकी तिथि इतिहासकारों ने 2000 से 4000 वर्ष पूर्व की आंकी है। दाँगियों की द्वितीय सभ्यता: राजस्थान के अहाड़ ग्राम में खुदाई से मिले पात्रों में समानता होने के कारण 'अहाड़-संस्कृति' से उद्बोधित यहां की द्वितीय सभ्यता है, जो 4000 से 3800 वर्ष पूर्व की है। ये यहां की विकसित सभ्यता थी। इस युग के निवासी मिट्टी के बनाए हुए मकानों में निवास करते थे, पत्थरों की नींव पर मिट्टी के मकान खड़े करने की प्रथा थी। गेहूँ, चावल प्रमुख खाद्य पदार्थ थे। मिट्टी के पात्रों का प्रयोग बहु प्रचलित था, सफेद रंग से चित्रित लाल-काले पात्र, धब्बेदार, धूसर एवं लाल और अतिघर्षित लाल पात्रों का प्रयोग इस युग के निवासियों की अपनी मौलिक विशेषता थी। पात्रों में लहरदार कंधे तथा किनारे बनाने का प्रचलन था। पात्रों पर रेखांकन भी किये जाते थे। मिट्टी के पशु चित्रण की बाहुल्यता थी, जिनमें अधिकांशतया वृषभ एवं वृषभाकार थे। चित्रों की ये आकृतियां इस हद तक सरलीकृत कर दी गई थी, कि कभी-कभी वह मात्र लिंगाकार रूप में प्राप्त हुई थी। खुदाई में मिले वृषभ की बाहुल्यता उनके "वृषभ-पूजा" की ओर संकेत करती है। इस युग के निवासी शवों को जलाते थे और उनकी अस्थियों को पात्र में रखकर घरों में गाड़ते थे। दाँगियों की तृतीय सभ्यता: दाँँगी सभ्यता का तृतीय क्रम ईसा पूर्व 3800 से 3300 वर्ष प्राचीन माना गया है,जो दाँगियों की "मालव-संस्कृति" के नाम से जानी जाती है। इस सभ्यता के समान 'अहाड़-सभ्यता' के मिश्रित चिह्न से मिलते हैं। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि 'मालव-सभ्यता' का विकास अहाड़ से हुआ है। इस युग में निर्मित मकान प्रायः आयताकार होते थे। 'नवदाटोली' की भांति यहां बांस के अस्थि पंजरों पर मकान खड़ा करने के प्रथा थी, जिसपर एक विशेष प्रकार की घास-फूस ठठ्रों एवं मिट्टी सम्मिश्रण से तैयार छतें रहती थीं। संपूर्ण मकान के ढांचे इसी की होती थी। उत्खनन में जले हुए मकान, मिट्टी में जली बांस की पिंचियाँ, ठठरों के निशान, सतह पर स्तंभ छिद्र मिले हैं। आश्चर्य तो यह है कि 3500 वर्ष प्राचीन उस युग की आवास शैली को मालवा निवासियों ने ज्यों का त्यों आज तक सहेज-संवार कर रखा है। आज भी मालवा के ग्रामीण अंचलों में यही आवासीय विधा जस की तस विद्यमान है। मिट्टी के पात्रों पर बनी आकृतियों एवं प्राप्त छापों से स्पष्ट होता है कि यहां के निवासी कपास के बने अंगरखानुमा वस्त्र पहनते थे। संदर्भ: 1. दंगवाड़ा उत्खनन - श्री कल्याण कुमार चक्रवर्ती, श्री विष्णु श्रीधर वाकणकर, श्री महेश्वरी दयाल खरे - पुरातत्त्व एवं संग्रहालय, मध्यप्रदेश, भोपाल - 1989. 2. जमीन में दबा चार हजार वर्ष पुराना नगर, लेखक -श्री एम0 के0 माहेश्वरी,उज्जैन,मध्यप्रदेश।

एरण:

दांगियों की प्राचीन राजधानी "एरण" ?

प्राचीन काल में दागियों का 'एरण' एक अति समृद्ध अर्थव्यवस्था का केन्द्र तथा राज था। "एरण" ग्राम मध्यप्रदेश के सागर जनपद में मण्डी-बामोरा रेलवे स्टेशन से 10 किलोमीटर दूर में स्थित है। बेतवा की सहायक नदी बीना इस ग्राम के उत्तरी छोर पर प्रवाहित है। अभिलेखीय साक्ष्यों में "एरण" का प्राचीन नाम 'ऐरिकिण' मिलता है। वर्तमान में यह ग्राम एक उन्नत विस्तृत टीले पर अवस्थित है, जिसे स्थानीय लोग 'एरण-बतीसी' कहते हैं। कहा जाता है कि पूर्व काल में समीप के 92 ग्राम 'एरण' के अधिकार क्षेत्र में सम्मिलित थे। इस भूभाग का प्रथम सर्वेक्षण वर्ष 1874-75 तथा 1876-77 में मेजर जनरल कनिंघम ने किया था। इसके बाद 1960-65 के बीच सागर विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष प्रो.के.डी.वाजपेयी के निर्देशन में 'एरण' के प्राचीन टीलों का उत्खनन कराया गया। बीना नदी के तट पर किये गए सर्वेक्षण में पाषाण कालीन उपकरणों की उपलब्धि इस क्षेत्र के पाषाण कालीन सभ्यता पर नया प्रकाश डाला है। उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों के आधार पर यह ज्ञात हुआ है कि यहां नवपाषाण काल एवं ताम्र पाषाण काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक की सभ्यता विकसित रही है। यह उपलब्धि यहां प्राप्त विभिन्न शिलालेखों से स्पष्ट हुआ है। उत्खनन में कई ऐतिहासिक प्रतिमायें भी प्रकाश में आई हैं:- विष्णु प्रतिमा: भग्न मन्दिर के गर्भ गृह में विष्णु प्रतिमा स्थापित है,विष्णु समभव मुद्रा में हैं। उनका मुख आंशिक रूप में तथा चारों हाथों के आयुध खण्डित रूप में मिले हैं। मस्तिष्क के पीछे आकर्षक गोल प्रभामण्डल है। किरीट मुकुट के मध्य में सिंह मुखाकृति, लड़ियों से गुम्फित मोती-माला, रत्न पेटिका से सुशोभित हैं। कानों में कर्णाभूषण, गले में गलेमाल, वनमाला, कटिबंध तथा अधोवस्त्र का अति सुंदर अंकन है। प्रतिमा की शारीरिक संरचना अतिप्रभावोत्पादक तथा देवत्त्व भाव से परिपूर्ण है। गरूड़-स्तम्भः- गुप्तकालीन कलावशेषों में बुद्धगुप्त का विशाल एकाश्म निर्मित गरुड़ ध्वज स्तम्भ दर्शनीय एवं उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त कृष्ण- लीला, फलक-स्तम्भों तथा द्वार फलकों में मंगल-घट,पुष्प पत्रावली, पशु-पक्षी, हंस-युगल, लता-वल्लरी, कमल, क्षुद्र-घंटिका, नृत्य तथा संगीत के दृश्य मांगलिक अभिप्रायों से जुड़े स्थापत्य कला में पिरोये गए हैं। मध्यप्रदेश का अति ऐतिहासिक प्राचीन स्थल "एरण" सागर जिले की खुरई तहसील के अंतर्गत स्थित 'एरण' ग्राम (प्राचीन एरिकिण) आज भले ही एक समान्य ग्राम हो, किन्तु प्राचीन काल में भारत का एक विशिष्ट सांस्कृतिक स्थल होने का गौरव इसे प्राप्त था। सागर विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास तथा पुरातत्त्व विभाग के विभागध्यक्ष प्रोकृष्णदत्त बाजपेयी के निर्देशन में सन् 1960-1965 तक वहाँ उत्खनन कार्य कराया गया था। उत्खनन में मृद्भांड, सिक्के, पाषाण तथा तांबे के हथियार, मनके, चूड़ियाँ, मिट्टी एवं पाषाण की बनी अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। यहाँ एक सुरक्षा प्राचीर तथा खाई भी प्राप्त हुई है तथा ताम्राश्म युग से लेकर मध्य काल तक की सांस्कृतिक इतिहास से संबंधित अनेक तथ्य यहाँ प्रकाश में आये हैं।

अहाड़-संस्कृति?

दाँगियों की "अहार-संस्कृति" काफी प्राचीन एवं ताम्रपाषाण युगीन थी। ताम्रपाषाण युग के लोग अधिकांशतः पत्थर और तांबे की वस्तुओं का प्रयोग करते थे।वे मुख्यतः ग्रामीण समुदाय बनाकर रहते थे और देश के ऐसे विशाल भागों में फैले थे,जहाँ पहाड़ी जमीन और नदियाँ थीं। मध्य और पश्चिमी भारत की 'मालवा ताम्रपाषाण संस्कृति' की विलक्षणता है ‘मालवा-मृद्भांड', जो ताम्रपाषाण मृद्भांडों में उत्कृष्टतम माना गया है। आहाड़ (आयड) में कई सपाट कुल्हाड़ियाँ, चुड़ियाँ और पतरें मिली हैं, जो सभी ताबें की हैं। आयड या अहार का प्राचीन नाम तांबवती (ताम्रवती) अर्थात् तांबावाली जगह है। अहार संस्कृति का काल 2100 ई0 पू0 और 1599 ई0 पू0 के बीच का माना गया है। गिलुंद उस संस्कृति का स्थानीय केन्द्र माना गया है। 1. ताम्रपाषाण काल के लोग विभिन्न प्रकार के मृदभांडो का व्यवहार करते थे। इनके एक किस्म मेंं बरतन काले व लाल रंग के हैं और इनका प्रयोग लगभग 2000 ई0 पू0 से व्यापक तौर पर होता आया है। ये चाकों पर बनते थे और कभी-कभी इन पर सफेद रैखिक आकृतियाँ बनी रहती थी। यह बात केवल राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में ही नहीं है, बल्कि बिहार और पश्चिम बंगाल में पाई गई बस्तियों में भी है। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और बिहार में रहने वाले लोग टोंटी वाले जलपात्र, गोड़ीदार तश्तरिया और गोड़ीदार कटोरे बनाते थे। ऐसा समझना गलत होगा कि काले-व-लाल मृदभांड का व्यवहार करने वाले सभी लोग एक ही संस्कृति के हैं। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान वाले मृद्भांड चित्रित हैं, पर पूर्वी भारत में ऐसे मृद्भांड बहुत कम पाये गये हैं। ध्यान देने की बात यह है कि वे लोग गेहूँ और चावल ऊपजाते थे। इन मुख्य अनाजों के अतिरिक्त वे बाजरे की भी खेती करते थे। वे मसूर, उड़द और मूंग आदि कई दलहन और मटर भी पैदा करते थे। लगभग ये सभी अनाज महाराष्ट्र में नर्मदा नदी के तट पर स्थित नवदाटोली में भी पाये गये हैं। खुदाई में इतने सारे अनाज संभवत: भारत में अन्य किसी भी स्थान में नहीं मिले हैं। संदर्भ: 1.प्रारंभिक भारत का परिचय, ,लेखक- रामशरण शर्मा,ओरियंट ब्लैक स्वाँँन प्रा.लि.हैदराबाद,पृ.63,64,65,66.वर्ष-2017 2. 'आहड़'- डॉ० श्रीकृष्ण ओझा, भारतीय

      पुरातत्त्व रिसर्च पब्लिकेशन, नई दिल्ली।

3. Habitat Economy And Society, A Study Of The Dangies, by A.N. Bhattacharya & R.N. Vyas, Concept Publishing Co- N. Delhi. 1978


AHAR-BASIN

Dangi in Sanskrit refers to a high upland or piedmont region. As such Dangis may be the inhabitants of the Dang region. On the basis of this presumption the origion of Dangis from the Dangs (Ahwa district) southof the Tapti to the districts of southern Rajasthan, Jhalawar, Kota, Tonk and extending as far north as Sawaimadhopur, it may said that this entire tract is largely an upland region and remotely and presently is associated with the Dangis, Salada near Jaisamand lake in Udaipur district followed by pilgrimage

to Dwarka and also to the Ganga for holy dip. Preference for pilgrimage to

Dwarka may be indirectly inferred as a comparatively more recent northwar

movement.

Locally, the Dangis are also referred as Patels, a term commonly applied to a class of good and well to to farmers, but more in common use in Gujrat and in the adjoining districts of Rajasthan.

Dangis have been in occupation of good cultivated land and paid

one-third of their agricultural produce to the Jagirdars of the Maharana over

a period of one thousand years. Thus it could be asserted that the Dangis

have live in this region over a period of about one thousand years.

Reference:

Habitate Economy and society , studies of the dangies, by A.N.Bhattacharya and Ravindra Nath Vyas, concept publishing company New Delhi 1978.

ऐतिहासिक दंगवाड़ा?

चार हजार वर्ष पुराना दांगियों का "दंगवाड़ा" नामक एक गाँव मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन संभाग में जिला मुख्यालय से 26 कि.मी.दूर बड़नगर उज्जैन रोड पर स्थित है। चम्बल नदी की गोद में बसे इस ग्राम के पश्चिमी छोर पर एक निर्जन टीला है,जो लगभग चार हजार वर्ष पुरानी एक विकसित सभ्यता और संस्कृति को अपनी थाती में संजोए हुए है। जनश्रुतियों के अनुसार यहाँँ “दंग” नामक राजा राज्य करता था, तार्किक दृष्टि से गांव का नाम इसकी पुष्टि करता है,पर प्रमाणों के अभाव में इस संबंध में इतिहास मौन है। संभव है ये कोई स्थानीय शासक रहा हो, जिसे गांववासियों ने हजारों वर्षों के बाद भी अपने हृदय में स्थान दे रखा है।"      
                 - एम. के. माहेश्वरी ।

दण्डकारण्य का विनाश ?

डांगी / दाँगी शब्द "दण्डक" शब्द से बना है। संस्कृत का 'दण्डक' शब्द दंडक मे रुपान्तरित होकर अपभ्रंश काल आते-आते 'डांग' या 'दांग' हो गया। डांग या दांग का अर्थ होता है जंगल, टीला, पहाड़, नदी-पहाड़ी प्रदेश आदि। संस्कृत का यह "दण्डक" शब्द पौराणिक 'दण्डक-वन' या पौराणिक 'दण्डकारण्य-महाजनपद' का प्रतीक है। पुराणों के अनुसार दण्डक महाजनपद के शासक इक्ष्वाकु पुत्र राजा "दण्ड" थे और काल क्रम से भाषागत परिवर्तन के फलस्वरूप दण्डक राज्य के शासक राजा दण्ड और उनके वंशज तथा दण्डक राज्य के अधिवासी 'डांगी' या 'दांगी' कहलाये। डॉ. भगीरथ प्रसाद त्रिपाठी (निदेशक, अनुसंधान संस्थान, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी) ने भी दांगी की व्युत्पत्ति मूल 'दण्डक' शब्द ही बताया है। डॉ० ए. एन. भट्टाचार्य और श्री आर. एन. व्यास देव ने अपनी पुस्तक 'ए स्टडी ऑफ दांगीज' में इस शब्द की उत्पत्ति की व्याख्या डांग=जंगल,डांगर आदि शब्दों के द्वारा किया है। पौराणिक दण्डकारण्य राज्य एवं वहाँ के महाप्रतापी शासक राजा 'दण्ड' के सम्बन्ध में 'पद्म पुराण' के सृष्टि खण्ड में विस्तार से विवरण आया है। सूर्यवंशी नरेश दशरथ पुत्र रामचन्द्र के प्रश्नों के उत्तर देने के क्रम में अगस्त मुनि कहते हैं- "राजन्, पूर्व काल के सत्ययुग की बात है। वैवस्वत मनु इस पृथ्वी पर शासन करने वाले प्रथम राजा थे। उनके पुत्र का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु बड़े ही सुन्दर तथा अपने भाइयों में सबसे बड़े थे। उन्होंने नाना प्रकार के शास्त्रीय कर्म (यज्ञादि) किये और उनके द्वारा राजा को अनेक पुत्रों की प्राप्ति हुई। इक्ष्वाकु के पुत्रों में जो सबसे छोटे एवं गुणों में सबसे श्रेष्ठ, शूर और विद्वान, प्रजा का आदर करने के कारण सबसे विशेष आदर का पात्र हो गये। उसके बुद्धिमान पिता ने उसका नाम दण्ड रखा तथा विन्ध्याचल के दो शिखरों के बीच राज करने के लिए एक नगर दिया, उस नगर का नाम 'मधुमत' था। धर्मात्मा दण्ड ने बहुत वर्षों तक वहाँ अकण्टक राज किया। 'पद्म-पुराण' के सृष्टि खंड में ही एक कथा भार्गव मुनि शुक्राचार्य द्वारा दण्डाकारण्य को भष्म करने और राजा दण्ड को दण्डित करने हेतु राज को विनष्ट करने की कथा आयी है। ऋषि शाप से वन विनाश नहीं हो सकता। ऋषि शाप किसी आर्य भिन्न जाति समूह अथवा असुरों के आक्रमण का प्रतीक मात्र है। दण्डकारण्य क्षेत्र एवं विन्ध्य पर्वत के दक्षिण आर्यों के प्रसार के समय उन्हें आर्य भिन्न जातियों एवं असुरों से संघर्ष करना पड़ा था। शुक्राचार्य द्वारा दण्ड राज्य के विनाश का उल्लेख एक रहस्यात्मक पहलू माना जाता है।

  शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु थे। अतः ऋषि शाप निश्चय ही दण्डक जनपद पर असुर आक्रमण का ही प्रतीक था। सच तो यह है कि ऋग्वेद में वर्णित देवासुर संग्राम का दौर किसी न किसी रूप में उत्तर वैदिक काल (राजा दण्ड के राजत्व काल) तक चल रहा था।
हरा भरा दण्डकारण्य राज्य के विनष्ट होने एवं वहाँ के अधिवासियों द्वारा राज्य छोड़कर राज्य सीमा से बाहर पलायन करने का संकेत पुराणों के साथ-साथ रामायणों से भी मिलता है।
रामायण काल आते-आते विनष्ट दण्डकारण्य पुनः वनाच्छादित हो चुका था। अतः यही कारण है कि दण्डकारण्य के पंचवटी-स्थल में ही श्री राम ने एक लम्बे काल तक बनवास की अवधि बितायी। इसी बीच सूर्पणखा के नाक कटे, खर-दूषण का वध हुआ एवं सीता हरण  हुआ। अतएव ये सभी पौराणिक विवरण दण्डक राज्य एवं राजा दण्ड की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं।

पुराण वस्तुतः प्रागैतिहासिक काल का इतिहास माना गया है। 'पुरा परम्परां वक्ति पुराणं तेन वै स्मृतम्'- वायु पुराण, 1/2/53. 'पुराण' का अर्थ ही होता है पुराना। कहा जाता है कि पुराणों की रचना वेदों से भी पहले हुई थी। ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है, परन्तु मत्स्य पुराण का कथन है कि पुराण सभी शास्त्रों और ग्रंथों से पुराना है। "पुराणां सर्व शास्त्राणां प्रथम ब्रह्मणासमृतम् । अन्तरं च बक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः ।"(मत्स्य पुराण-53/3)

कालान्तर में भौगोलिक-राजनैतिक उथल-पुथल के फलस्वरूप दण्डक राज्य के निवासी भारत के विभिन्न भागों एवं भारत की सीमा से बाहर भी द्रगियाना (ईरान) काबुल (अफगानिस्तान) दागिस्तान (रूस का एक प्रदेश) और नेपाल तक फैल गये और उन्होंने अपनी डांग-सभ्यता, संस्कृति तथा बोली विकसित की। राजस्थान जयपुर क्षेत्र के अलवर, भरतपुर, करौली, बयाना आदि की स्थानीय बोली 'डांगी' बोली है, जो आज भी बोली जाती है। उसी तरह गुजरात के डांग-आह्वा की बोली (भाषा) डांगी है, जो ‘डांग-भाषा' कहलाती है। आज भी डांग आह्वा (गुजरात) में रामायण पर आधारित नाटक खेल तमाशे खेले जाते है, जो 'डांगी-तमासा' कहा जाता है।

इस तरह दाँगियों का राज भारत के विभिन्न भागों में फैला और उन्होंने राज्य का विस्तार किया। राजस्थान (मत्स्य) मध्य प्रदेश के मालवा, बुन्देलखण्ड (पुलिंद) विदिशा, दंगवाड़ा (उज्जैन-इन्दौर) दाँगीवाड़ा (एरण-सागर) डांडकी (मध्य भारत में स्थित पौराणिक काल का एक गणराज्य) नेपाल का 'डांग' राज्य आगे चलकर 'बाईसी' डांग राज्य ईत्यादि में विभिन्न नामों से सम्बोधित होकर इसी राजा (राजा दण्ड) और राजवंश का शासन समय-समय पर न्यूनाधिक सीमा के अन्तर्गत चलता रहा।

  डॉ० दशरथ शर्मा ने मल्ल (मालव दाँगी) सूर्यवंशियों के शासन का उल्लेख किया है। उनका राज्य हिमालय के अंचल स्थित यमुना काठे के बुदेलखण्ड से लेकर अयोध्या के उत्तर हिमालय की तराई तक बतलाया है। उन्होंने मल्ल-डॉगी मालवों के स्थान भी बतलाये हैं उनमें -1.पहला पंजाब-मालवा पटियाला-फिरोजपुर के निकटवर्ती क्षेत्र और 2-दूसरा मध्य प्रदेश-उज्जैन मालवा (सागर-विदिशा-उज्जैन के निकटवर्ती क्षेत्र) शामिल हैंं।

संदर्भ : 1. Habitat Economy A study of Dangis, Concept Publishing Co.. New Delhi. 2. पद्म पुराण, सृष्टि खण्ड- अनुवाद गीता प्रेस, पृष्ठ-120. 3.दांगी साहित्य और समाज लेखक- महेन्द्र सिंह दांगी,2005 । 4. वायु पुराण 5. मत्स्य पुराण | 6. भारतीय वाङ्मय में दांगी सामज और साहित्य लेखक- डॉ० जनक नन्दन प्रसाद 'जनक', शोध-प्रबंध, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया। 7. प्राचीन राजस्थान का इतिहास लेखक- डा०

दशरथ शर्मा।

दांगी पर आधारित प्रामाणिक पुस्तकें?

1.संस्कृत महाभारत -(प्राचीन कलकत्ता संस्करण) संस्कृत महाभारत के प्राचीन संस्कृत ग्रंथ में दंगवे-उर्वशी आख्यान का विवरण है। मराठी 'डंगवै पुराण' नामक ग्रंथ के सम्पादक डॉ. बसन्त दामोदर कुलकर्णी (प्रोफेसर एवं शोध अध्यक्ष, मराठी विभाग, उस्मानियाँ विश्वविद्यालय, हैदराबाद, आंध्रप्रदेश) लिखते हैं कि 'डंगवै पुराण' के कवि ने स्वीकार किया है कि उसके काव्य का कथानक महाभारत में वर्णित है। परन्तु महाभारत के किसी भी आधुनिक ग्रंथ में यह कथा नहीं है। 'कथाकल्पतरू' नामक एक अन्य मराठी पुस्तक से विदित होता है कि प्राचीन संस्कृत महाकाव्य महाभारत में यह दंगवै उर्वशी कथा वर्णित है। संस्कृत महाभारत के प्राचीन संस्करण के सभापर्व में दंगवै कथा का आख्यान आया है। डॉ. बसन्त दामोदर कुलकर्णी का कहना है कि महाभारत की सभी प्राचीन प्रतियों में यह आख्यान अभी भी उपलब्ध है। डॉ. शिव गोपाल मिश्र का भी मानना है कि इस दंगवै-कथा का मूल स्रोत व्यास देव कृत संस्कृत का सुप्रसिद्ध ग्रंथ महाभारत ही है। यह बड़े ही आश्चर्य की बात है कि संस्कृत महाभारत के आधुनिक संस्करणों से इतने महत्त्वपूर्ण आख्यान को क्यों निकाल दिया गया है। यह बड़े खेद की बात है। 2.दंगीशरण कथा (थारूई एवं पसु भाषा)

यह एक काव्यात्मक रचना है। इसमें राजा दंगीशरण की कथा है। इस कथा काव्य के कवि ईश्वरदास हैं तथा प्रकाशक बद्रीनाथ योगी, रूपलाल महतो दांग टीकाकार हैं- यह कथा-काव्य (थारुई भाषा) में है।  3.नेपाल के एक प्रसिद्ध विद्वान योगी नरहरि दास भी अलग से इसी ईश्वरदास कृत 'दंगी शरण कथा' का सम्पादन किया है, जो गोरक्ष विद्यापीठ, काष्टमण्डप (काठमाण्डू) नेपाल से प्रकाशित है।  4.इस कथा-काव्य के टीकाकार डॉ. जगदीश नारायण सिंह को उद्धृत करते हुये डॉ. जनकनन्दन सिंह ने इस कथा के नायक दंगी शरण की वंश परम्परा में उत्पन्न राजाओं की एक सूची भी प्रस्तुत की है-                           (1) राजा दांगी शरण, द्वापर युगीय नेपाल दांग नरेश।

(2) लुई दंगी या लघु दंगी। (3) उपर दंगी। (5) चितल दंगी। (6) मंगल दंगी। (7) उरगसेन। (8) अंगार दंगी। (9) सारंग या सारिंग दंगी। (10) माणिक्य पारखू या मणिक्य परीक्षक। (11) रत्न पारखू या रत्न परीक्षक। (12) भापव राज या माधव राज।

5.दंगी-संग्राम (हिन्दी एवं अवधी)। ,'दंगी-संग्राम' नामक काव्यकृति मुगल बादशाह अकबर कालीन रचना है। नेपाल स्थित डांग राज्य के राजा दंगीशरण ही इस कथा-काव्य के नायक हैं। इसके रचयिता कवि श्याम दास हैं। कवि श्याम दास सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। कवि ने अपने जन्म स्थान के सम्बन्ध में इसी दंगी संग्राम काव्य में लिखा है कि मेरा जन्म एक शहर में हुआ, जो गंगा नदी के निकट ही स्थित था और जहाँ के राजा दांगी संग्राम सिंह थे। यह नगर गंगा के निकट बसा था, जहाँ मैंने इस काव्य रचना का संकल्प लिया। कवि ने इस काव्य की रचना काल सम्वत् 1660 लिखा है,उस समय भारत में मुगल सम्राट् अकबर का शासन था। 6.दरिया- ग्रंथावली (फारसी एवं हिन्दी )। 7.'ज्ञान दीपक' अन्तर्गत 'दंगवे संग्राम' की रचना दलदास द्वारा पहले पुस्तक फारसी भाषा में की गई। बाद में उसका अनुवाद एवं सम्पादन कवि दरिया दास द्वारा 'सतनाम' पुस्तक से हिन्दी भाषा में किया गया। दलदास ने जम्बू द्वीप अन्तर्गत राजा दंगवे-उर्वशी एंव दुर्वासा ऋषि की कथा का पद्यात्मक वर्णन किया है। 8.रत्न-बोध (नेपाली भाषा) 'रत्न बोध' नामक धार्मिक ग्रंथ में नाथ योगी रतन नाथ को दिये गये उपदेश हैं। यह योगी रतन नाथ कोई अन्य व्यक्ति नहीं थे, बल्कि नेपाल दांग राज्य के प्राचीन नरेश दंगी शरण की वंश परम्परा में उत्पन्न राजा 'रत्न-परीक्षक' ही थे। जिन्होंने गोरखनाथ से उपदेश ग्रहण कर "सिद्ध-गुरुपद" प्राप्त किया और योगी रतननाथ के नाम से विख्यात हुए। "उर बिना खुर बिना, पंच-पंच बिनु हंसा,उ जीव मारो रे राजेसुरा जामें रक्त मंसा ।।"- गोरखनाथ कहा जाता है कि एक बार नेपाल डांग के तत्कालीन राजा रत्न परीक्षक आखेट हेतु उपवन में घूम रहे थे, उसी समय उन्हें बाबा गोरखनाथ के दर्शन हुये एवं उनसे प्रभावित होकर उनका उपदेश ग्रहण किया। उनका उपदेश ग्रहण कर वे सिद्ध योगी बन गये और ईसवी सन् की 9वीं सदी में गोरख नाथ परम्परा का 'आचार्य-पद' प्राप्त किया। घोराही (नेपाल) में एक टीला है, जिस पर "सिद्ध रतन नाथ" का मठ और विशाल मंदिर है, जहाँ प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है। मंदिर में पात्र-देव (गोरख पात्र-देव) की पूजा होती है। 9.इतिहास प्रकाश (नेपाली भाषा)

इसमें नेपाल के राजवंश का इतिहास है। इसके लेखक योगी नर हरि नाथ का कहना कि वहाँ के 'डांग-देवखुरी' में राजा दंगवे का प्राचीन राज्य था। योगी के कथन का समर्थन नेपाली लेखक डोर बहादुर विष्ट के ग्रंथ 'द पिपुल ऑफ नेपाल' से भी होता है। यहाँ मध्य युग तक दण्ड वंशी राजाओ का ही शासन रहा और सतरहवीं शाताब्दी में वहाँ के दाँगी राजा काल में पृथ्वी नारायण शाह के द्वारा समस्त नेपाल के छोटे-छोटे राज्यों को संगठित रूप से विजीत करने के बाद "नेपाली-वाईसी" राज्य समूह का "दंगवै" या "दांगी-राज्य" प्रसिद्ध हुआ। यहाँ पर राजा दंगीशरण के वंशजों के बनाये हुए किले के खण्डहर भी हैं।             

10.कथा कल्पतरू(मराठी,प्राकृत एवं तमिल भाषा) 'कथा कल्पतरू' भी एक मराठी भाषा में विरचित काव्यात्मक रचना है। कहा जाता है कि यह भागवत् का अनुवाद है। मराठी भाषा में जितनी भी दंगवै-उर्वशी कथायें विभिन्न कालों में विभिन्न कवियों द्वारा लिखी गई है,उनका आधार ग्रंथ यही मराठी 'कथा कल्पतरू'है। इसके अलावे गुजराती भाषा में डांगवी आख्यान, बंगला भाषा में 'दण्डी पर्व' इत्यादि अनेक रचनायें हैं, जिनमें राजा दंगवे-उर्वशी कथायें भरी हैं। दंगी शरण-उर्वशी की कथा भारत के सभी प्राचीन और आधुनिक भाषाओं के विभिन्न साहित्यों में उपलब्ध है। “राजा दंगवे-उर्वशी" की एक ही कथा जैन प्राकृत काल से अर्थात् पहली शताब्दी ई. सन् से मूल रूप में गुणाढ्य के 'वडकहा' नामक पुस्तक में लिखे जाने के पश्चात् संस्कृत, महाराष्ट्री, प्राकृत, शौरसेनी, अपभ्रंश, गुजराती, बंगला, ब्रजी, बुन्देली, अवधी, खड़ी बोली, हिन्दी, नेवारी, नेपाली, थारु, इत्यादि विभिन्न भाषा एवं लिपियों में अनेकानेक कवियों द्वारा अनेकानेक काल के अनेक क्षेत्रों में तथा अनेक रूपों में लिखी गई हैं, जो प्राचीन संस्कृत महाभारत एवं वृहत् कूर्म पुराण (प्रारंभिक कलकत्ता संस्करणों) आदि में भी उल्लिखित है।" दंगवे उर्वशी कथा मूल रूपसे गुणाढ्य कवि द्वारा प्राकृत भाषा में लिखी गई थी। कवि गुणाढ्य सातवाहन वंश के प्रसिद्ध और प्रतापी राजा कुंतल सातकर्णी (जिसमें शकारि और द्वितीय विक्रमादित्य की भी उपाधि धारण की थी) की राज्याश्रित कवि थे। गुणाढ्य प्राकृत भाषा के एक प्रसिद्ध कवि एवं लेखक थे, जिन्होंने प्राकृत भाषा का प्रसिद्ध ग्रंथ बहुकहा (बृहत् कथा) लिखी। सात वाहन राजा (जिनका मौलिक स्थान प्रतिष्ठान अर्थात् गोदावरी नदी तट पर स्थित पैठन राजधानी नगरी थी) प्राकृत भाषा ही बोलते थे। “सम्प्रति गुणाढ्य लिखित मूल वहुकहा (बृहत् कथा) उपलब्ध है। वृहत् कथा का एक तमिल अनुवाद दक्षिण भारत में भी मिला है। 11.'कथा-सरित-सागर'और'वृहत्-कथा- मंजरी' के लेखक कश्मीर के निवासी थे और सोमदेव ने अपना ग्रंथ कश्मीर की रानी सूर्यमती की प्रेरणा से लिखा था। सातवाहन सम्राट के राजाश्रय में कवि गुणाढ्य द्वारा लिखी गई वृहत् कथा उत्तर में कश्मीर से लगातार दक्षिण में तमिल संस्कृति के केन्द्र मथुरा तक प्रचलित हो गयी। यह सातवाहन साम्राज्य के वैभव का ही परिणाम था कि उसके केन्द्र में लिखी गयी इस वृहत् कथा की कीर्ति सारे भारत में विस्तृत हुई। इसमें प्राचीन भारत की बहुत सी कथायें संग्रहित हैं।" 12.दण्डी पर्व्व - यह बंगला में प्रकाशित ग्रंथ हैं। इसके लेखक -श्री उमाकांत भट्टाचार्य, ताराचंद प्रकाशन,कलकता है।