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अन्तिम पत्ते की विदाई - नीरज जैन[1]
आज १९७९ की इकत्तीस अक्टूबर है। मेरे जीवन के त्रेपन वर्ष आज पूरे हो रहे हैं। मैं यहाँ उन बीते वर्षों की उपलब्धियों और असफलताओं का लेखा-जोखा लगाने नहीं बैठा हूँ | इस के लिए मेरे पास न कभी समय रहा है, न है, न हो सकेगा । आज मुझे बार-बार ऐसा लगता है, कि त्रेपन पत्तों की ताश की जोड़ी की तरह ही, जीवन के ये त्रेपन वर्ष एक एक करके मेरे हाथ से फिसलते रहे हैं और आज इनका अन्तिम पत्ता मेरी काँपती अंगुलियों पकड़ से सरकने जा रहा है। मैं खुद नहीं जानता कि ताश के पत्तों के साथ अपने जीवन की यह समानता मुझे क्यों दिखाई दे रही है। शायद यह इसलिए हो कि इन पत्तों की ही तरह मेरा जीवन भी भाँति-भाँति के लोगों के मनोरंजन और आमोद-प्रमोद का साधन बनता रहा है। ऐसे आमोद प्रमोद का साधन, जिसका आधार बनकर भी, मैं कभी भागी दार नहीं बन पाया । मैं तो महज पिसता रहा, फेंटा जाता रहा, या इधर से उधर फेका जाता रहा। यह समानता शायद इसलिए भी मुझे भासती हो कि ताश की तरह मेरा जीवन भी, अपने आप में नगण्य होने के बावजूद छोटे और बड़े, सबके सम्पर्क में आता रहा है । या फिर मुझे यह समानता महज इसलिए लग रही हो कि ताश में कुल त्रेपन पत्ते होते हैं, और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मेरे जीवन के इतने ही वर्ष पूरे हो रहे हैं । जो भी हो, मैं ताश के पत्तों के साथ अपने जीवन की तुलना करने से अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूँ ।
जानकार लोग कहते हैं कि ताश के खेल बावन प्रकार के होते हैं। मैं तो उनमें से पाँच भी नहीं जानता। हो सकता है भी अधिक जानते हों, परन्तु 'ताश का महल' एक ऐसा खेल है जिसे हम सब जानते हैं, भले ही इसे खेलता कोई न हो । फुरसत के अकेले क्षणों में, जब हम ताश के पत्तों के साथ खेलने नहीं, खिलवाड़ करने बैठते हैं, तब एक-एक पत्ते को साधकर, आड़े-खड़े रूप में उन्हें सँजोते हुये, मिनटों में ताश का महल बना लेते हैं। उसे देखकर खुश हो लेते हैं । हमें विदित है कि हमारी यह प्रसन्नता दो चार क्षणों की ही होती है। हवा के सामान्य संचार से ही कब और कैसे हमारा महल बिखर जाता है, हम समझ नहीं पाते। बड़े कौशल और बड़ी रुचि से बनाये हुए ताश के महल को घराशायी करने के लिए, किसी भूकम्प या तूफान की आवश्यकता नहीं होती। हमारी सांस का छोटा सा स्पर्श, या पवन का तनिक सा भी बांकपन, उस महल के एक-एक पत्ते को निमिष मात्र में बिखरा कर धर देता है ।
जीवन में भी इसी प्रकार, बहुत बार, बहुत से मनसूबे बांधे हैं, कल्पना एक से एक बढ़कर महल बनाये हैं, परन्तु प्रायः उन्हें असमय में ही धराशायी होते देखा है। कई बार तो ऐसा हुआ है कि बस हम अपने महल में प्रवेश करने ही वाले हैं । सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है, कि तभी एकाएक वह महल ढह गया । न कोई आंधी-तूफान, न तर्जन, गर्जन, न बज्रपात; किन्तु हमारी कल्पनाओं का महल भूमिसात पड़ा है, ठीक 'ताश के महल' की तरह । इसीलिए हमेशा मुझे अपना जीवन ताश के पत्तों से मिलता-जुलता सा लगता रहा, और किसी दिन सहज ही मुँह से निकल पड़ा -
सांसों से ढह गये कभी आंसू में बह गये,
अब ताश के महल न बनाया करेंगे हम |
परंतु फिर भी इन काल्पनिक महलों का बनना और ढहना, अभी बन्द कहाँ हुआ है ? शायद कभी हो भी नहीं सकेगा। इतना अवश्य है कि इन हवाई महलों का निर्माण और विध्वंस, मेरे लिये कभी खेल से अधिक कुछ नहीं रहा। बनकर मुझे अहंकार दे सके, सा ढहकर हताश कर सके, ऐसा कोई महल मैंने अपने जीवन में कभी बनाया ही नहीं ।
ताश से परिचय तो उन दिनों हो गया था जब सौ तक गिनती भी नहीं आती थी। छोटे-छोटे ताशों की जोड़ी, जो जापान से छपकर आती थी, दो तीन आने की बाजार में मिलती थी | हम सभी खिलाड़ी अपने अपने पत्ते उलट कर अपने सामने रख लेते और एक-एक कर उन्हें फेंकते जाते थे। तब हमारे लिए सारे पत्ते समान थे । इक्का और दुक्की में, नहले और दहले में, बेगम और गुलाम में कोई अन्तर नहीं होता था। उन दिनों हमारी हार-जीत पत्तों के आधार पर नहीं, हमारी शक्ति के आधार पर होती थी। कोई भी पत्ता चलकर हम कहते कि पारी हमने जीत ली। सामने वाला दब जाता तो अपनी पराजय स्वीकार कर लेता | यदि वह जबरदस्त हुआ, तो चुनौती में अपना कोई पत्ता फेंककर अपनी जीत की घोषणा कर देता था। तब हर हमारे गले पड़ती थी। जीवन का पहला पाठ तभी पढ़ा कि 'जीत, बाजी जीतने में नहीं, जीत का हल्ला करने में निहित होती है । "
पत्तों की पहचान होने पर दुक्की मुझे सबसे अच्छी लगी । उसकी मासूम सी निरीहता, हर एक मिलने वाले के सामने अपनी लघुता से बोझ से दबा दबा उसका सहज संकोच, मुझे अपने व्यक्तित्व में भी जगह-जगह घुला मिला दिखाई दिया। इक्के को हाथ में लेकर अवश्य ऐसा लगा, जैसे किसी बड़े व्यक्तित्त्व से हाथ मिला रहा हूँ । कई खेलों में अथ से इति तक इक्का का सिक्का जमा हुआ दिखाई देता था। आगे चलकर जब 'तीन सौ चार' या 'टवेन्टी नाइन' जैसे खेलों में, गुलाम और नहले से भी इक्के को पिटता हुआ देखा, तब यह आस्था बनी कि पिटना और पीटना, हारना और जीतना, किसी का जन्म सिद्ध अधिकार नहीं है। यह सब भाग्य का खेल है ।
गुलाम के ठसके ने, उसकी चटक मटक ने, मुझे हमेशा प्रभावित किया है। हर माहौल में उसका अपने आपको फिट कर लेना, जुगाड़ कर लेने पर बेगम और बादशाह के सिर पर भी अपने आपको स्थापित कर लेना, गुलाम के ये सारे कार्य कलाप मुझे बहुत दिलचस्प लगते रहे हैं। यह बात अलग है कि उसकी इन खूबियों का प्रसंशक होकर भी मैं इन्हें अपने व्यक्तित्व में उतार नहीं सका ।
तीन-दो-पाँच का खेल स्कूल के दिनों में सीखा था। ताश में विरम जाने पर पढ़ाई का नुकसान होता था इसलिये इसको खेलते समय प्रायः मां की डांट-डपट पड़ती रहती थी। तभी मन ने अनजाने ही 'तीन-दो-पांच' की संगति 'तीन-पांच' से बैठा ली थी | तीन-दो-पांच का खेल और तीन पांच की खटपट मेरे मस्तिष्क में गड्डमड्ड होती रही, परन्तु जब से किताबों में रस आना प्रारम्भ हुआ, फिर न कभी 'तीन-दो-पांच' के प्रति आकर्षण रहा और न कभी किसी के साथ अकारण 'तीन पांच' करने क प्रवृत्ति जीवन में रही।
'ट्वेन्टी नाइन' के खेल ने मुझे चिन्तन का बहुत असर दिया । इस खेल में चार पत्ते हाथ में आने पर उन्हीं में से किसी एक को तुरुप बना कर रखना होता है। इस तुरुप का रङ्ग पूरे खेल का निर्णायक रङ्ग होता है। कई बार चारों ही पत्ते अलग अलग रंगों के और मनहूस सूरत शक्ल के हाथ में हैं, तब यह निर्णय करना संभव नहीं हो पाता कि तुरुप का दर्जा किस पत्ते को दिया जाय। तब हम आठवें पत्ते को तुरुप घोषित कर देते हैं। न बुद्धि का प्राणायाम न निर्वाचन का झमेला, बस जो भी आठवाँ पत्ता होता उसे ही तुरुप की जगह रखकर खेल आगे बढ़ जाता है। इस प्रक्रिया में कई बार बहुत नाचीज पत्ते भी तुरुप की कलगी लगाकर उछलते-कूदते दिखाई दिये हैं। तभी यह बात समझ में आई कि जहाँ पुरुषार्थ का जोर न चले, वहाँ अपने आप को भाग्य के भरोसे छोड़ देना चाहिये । जब जब मैंने आठवें पत्ते को तुरुप लगाया है, या किसी साथी को ऐसा करते देखा है, तब तब मुझे लगा है कि जीवन में भाग्य का भी बड़ा स्थान है। कई बार तो जब हमें आगे का मार्ग नहीं सूझ पाता तब भाग्य ही हमारा आखिरी सहारा होता है। और यह भाग्य, अपनी एक ही ठोकर से छोटे को बड़ा, और बड़े को छोटा बनाने की क्षमता रखता है । भाग्य की तूलिका का स्पर्श सचमुच बड़ा चमत्कारी होता है।
हार-जीत हर खेल का अनिवार्य फल है। ताश के खेल में भी वह होती है। मैं भी इस खेल में कई बार पिटा हूँ । अनेक बार छोटे-छोटे लोगों ने भी मेरे नहले पर दहला लगाया है । अनेक बार ऐसा भी हुआ है कि सामने वाले का नहला टेबिल पर पड़ा है और दहला मेरे हाथ में है। परन्तु न जाने क्यों, मैं कभी किसी के नहले पर अपने दहले को इतने जोर से पटक नहीं पाया हूँ जितने जोर से, जैसे गर्व के साथ, आम खिलाड़ी अपना जिताऊ पत्ता पटकते हैं। ऐसे अवसर पर मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि सामने वालेका यह नहला तो एक यथार्थ है, और मेरे हाथ में यह दहला महज एक संयोग है। यह मेरे पास नहीं भी हो सकता था, और आने वाली बाजियों में नहीं भी हो सकता है। तब फिर ऐसा गर्व क्यों प्रदर्शित करू जो महज दूसरे की पराजय पर टिका हो। ऐसा रौब भी किस काम का जिसे अपने चेहरे पर स्थायी बनाकर न रखा जा सके ? इसीलिए हमेशा किसी के नहले पर दहला लगाते समय सहम गया हूँ । इसमें मुझे सुखानुभूति कभी नहीं हुई ।
फ्लाश का खेल मुझे बड़ा व्यावहारिक लगा है। वैसे तो किसी भी तरफ से यह खेल कौशल का खेल ( गेम ऑफ़ स्किल) नहीं है । यह तो शुद्ध-शुद्ध भाग्य का खेल ( गेम ऑफ़ चान्स ) है | परन्तु इसमें जीत भाग्य भर से नहीं, हिम्मत से भी होती है । ब्लाइन्ड का दौर पूरा होने पर, चाल शुरू होते ही, भाग्य और हिम्मत के दांव-पेंच रंग दिखाने लगते हैं। कई बार अपनी हिम्मत और आत्म विश्वास से सामने वाले को आतंकित करके, तीसरे दर्जे के पत्तों वाला खिलाड़ी भी, इस खेल में बाजी मार ले जाता है । इस पर मुझे कहीं सुनी हुई यह उक्ति बड़ी सार्थक लगती है कि — “बाजी हारने का नाम हार जाना नहीं है, वरन हिम्मत हारने का नाम हार जाना है।" यही मेरे जीवन का भी गुरु-मंत्र रहा है ।
तिनपतिया का खेल मुझे कभी ताश का खेल लगा ही नहीं। बिना किसी कौशल और बेइमानी के भी, जहां एक तिहाई जीतने की और दो-तिहाई हारने की संभावनाएं हों, वह 'मूर्खता' खेल कैसे हो सकती है ? इसीलिये जीवन के किसी भी क्षेत्र में दांव लगाने की प्रवृत्ति मुझमें कभी नहीं रही।
रमी के खेल में मेरी शौकिया दिलचस्पी रही है। कौशल के साथ चुन-चुनकर अपने पत्ते लगाना, जोड़-तोड़ कर उनकी संगति बिठाना । किसने क्या उठाया, किसने क्या फेंका, इस लेखे जोखे के आधार पर छांटकर पत्ता फेकना, मुझे बड़ा रुचिकर लगता रहा है। किस अदा से सामने वाले ने पड़ोसी के पत्ते झांक लिए, किस कलाकारी के साथ गड्डी से एक पत्ता उठाते समय दूसरा पत्ता भी देख लिया गया, इसे ताड़ते रहना बड़ा मजेदार लगता रहा है। इस खेल में हारा भी हूँ, जीता भी हूँ। कई बार हार की आशंकाओं के बीच अपेक्षित रूप से जोकर या कोई चाहा हुआ पत्ता हाथ लग गया और एक क्षण में बाजी पलट गयी । कई बार अच्छे पत्ते रखे रहे, एक छोड़ दो-दो जोकर हाथ की शोभा बढ़ाते रहे, परन्तु सीक्वेन्स के अभाव में जीतती हुई बाजी भी हाथ से निकल गयी । इसी खेल में यह सार्वभौमिक सत्य समझ में आया कि 'ताश का खेल हो चाहे जीवन की बाजी हो, 'सीक्वेन्स' के बिना सब सूना सब अधूरा ही है।"
रमी में हम लोगों की हार-जीत का लेन-देन भी, कागज तक ही सीमित रहा है। भुगतान और वसूली तक बात कभी पहुँची नहीं । संकल्प कई बार हुए कि- हारने पर देंगे, जीतने पर वसूलेंगे, परन्तु ये बातें, बातें ही रहीं। जिनसे हारा उन्होंने कभी कपड़े नहीं उतरवाये और जिनसे जीता, उन्होंने कभी भुगतान भरने की शराफत नहीं दिखाई। यह खेल मुझे महज इसलिये भी अच्छा लगता रहा कि इसमें हमारा मन और मस्तिष्क कार्य करता है। जीतने के लिये हमें सतत जागरूक रहना पड़ता है। सभी खिलाड़ियों के पत्तों पर निगाह रखनी पड़ती है। भाग्य के भरोसे रहकर यह खेल जीता नहीं जा सकता। जीवन के संघर्षों में भी कदम-कदम पर मेरी यही आस्था रही है। भाग्य की अटलता पर अडिग विश्वास रखते हुए भी, मैंने अपने पुरुषार्थ पर उसे कभी हावी नहीं होने दिया । रमी की हार-जीत की तरह जीवन की हार-जीत को भी, मैंने प्रायः तटस्थ भाव से ही हमेशा स्वीकार किया है। उसमें संक्लेश और अहंकार मुझे कम ही हुए हैं।
इधर कई दिनों से मुझे लगता रहा है कि खेल के सारे पत्ते, धीरे-धीरे मेरे हाथ से सरक गये हैं। अब तक मैंने दुक्की से लेकर बादशाह तक सारे पत्ते आजमा लिए । तुरुप बना बना कर हर पत्ते को मोहरा बना लिया । कई नहलों पर दहला लगाकर जीने का अहसास, और कई बार दूसरे के दहले से अपने को पिटता हुआ देख कर हार का दर्द, महसूस कर लिया। तुरुप के सामने अपना इक्का और बादशाह, चिड़ी की दुक्की से पिटता रहा और हम असहाय से देखते रहे। मेरे पिछले बावन वर्ष जैसे बावन पत्तों के प्रतीक थे और मैंने उन सबको खेल लिया, भोग लिया, या खो दिया। अब मेरे हाथ में जो बचा है वह है जोकर, ताश का त्रेपनवां पत्ता | आप जानते हैं जोकर एक अतिरिक्त पत्ता होता है, एक दम 'एडीशनल' । इसका कोई मूल्य नहीं होता, फिन्तु कभी-कभी यह बहुत बहुमूल्य भी हो जाता है। जोकर की यही खूबी है कि वह हर स्थिति में अपने मान-सम्मान की गरिमा स्थापित कर सकता है, और अपनी अस्मिता को सुरक्षित रख सकता है। उसका दांव है और हर पत्ता उससे पिट जाता है ।
यह संयोग की बात है कि मेरे जीवन का यह त्रेपनवां वर्ष भी जोकर की ही तरह मेरे लिए विलक्षण साबित हुआ है। इस वर्ष में मुझे जितनी उपलब्धियां हुईं, और मैंने जो खोया, वह मेरे जीवन के सारे लेखा-जोखा को प्रभावित करता है। इस वर्ष में मुझे जितनी पीड़ा, जितने संक्लेश और जितने घात सहना पड़े, उतने तो विगत अनेक वर्षों में मिलाकर भी नहीं सहने पड़े थे। इस एक वर्ष में मैंने जितना पाया उतना भी कई लोग तो जीवन भर में भी नहीं प्राप्त कर पाते। इस वर्ष में मैंने जहां जो बाजी बिछाई, जोकर की तरह यह वर्ष मेरे लिए वहां से कुछ न कुछ लेकर ही आया । इस वर्ष की वे सारी उपलब्धियां, आज मेरे पास हैं, और बहुत समय तक मेरे पास रहेंगी। इस तृप्ति का अहसास मेरे शेष जीवन का सम्बल बनेगा । इसीलिए आज, जब यह त्रेपनवां पत्ता भी देहरी के बाहर खड़ा हो गया है, मैं यह निर्णय नहीं कर पा रहा कि इसे गमगीन होकर 'अलविदा' कहूँ या मुस्कराते हुए 'टा' 'टा' करूं ।
ताश के साथ जीवन की तुलना कर बैठा हूँ इसलिए इस रूपक का विसर्जन करते समय आज हर बाजी मेरी जीवन में बिछाई हुई में कौंध रही है। सारे के सारे खिलाड़ी भागीदार नजरों में घूम रहे हैं। वे, जिन्होंने मेरी हर विजय में हिस्सा बटाकर भी पराजय के क्षणों में किनारा ही किया, और वे भी, जिन्होंने मेरी हर हार को अपनी शिकस्त मानकर, हमेशा मुझे सहानुभूति प्रदान की। वे याद आ रहे हैं जो भागीदार बनकर भी, छल और रोढंताई के बल पर बार-बार अपनी जीत की खुशियां अंगेज ले गये, और वे भी जिन्होंने प्रतिस्पर्द्धा होकर भी हमेशा सच्ची खिलाड़ी भावना से व्यवहार किया और कभी भी मेरी किसी कमजोरी का अनुचित फायदा नहीं उठाया। उन्हें स्मरण कर रहा हूँ जो चानस-लोडिंग के खेल में हुकुम के इक्के की तरह, मुझे लादने की ही हमेशा कोशिश करते रहे, और उन्हें भी, जो किसी सीक्वेन्स का हिस्सा बनकर जीवन में आशा, विश्वास और आनन्द की किरणें बिखेरते रहे । उनके प्रति कृतज्ञ हूँ जिन्होंने समीप रहकर भी हमेशा एक परायेपन का, एक अदृष्ट दूरी का अहसास दिया, और उनके प्रति भी, जो सात समन्दरों और नौ पहाड़ों के पार बैठकर भी, अपनी अनवरत निकटता और अपनेपन की भावना से मुझे तृप्ति और परितोष देते रहे, दे रहे हैं। इसलिये भी उन सबका शुक्र गुजार हूँ, क्योंकि उनमें से एकभी यदि न होता तो जीवनकी कोई न कोई बाजी 'कलाबाजी' बनकर ही रह जाती। यह भी तो उनकी कृपा थी कि अब तक उन्होंने सदा व्यस्त रखा। उम्रका तकाजा है कि अब लस्त हो जाता हूँ। समय आनेपर भी क्षण अस्त हो जानेकी आशंकाको भी निरस्त नहीं किया जा सकता, परन्तु अस्त होने की आशंका से जराभी संत्रस्त नहीं हूँ । मस्त हूँ, पस्त नहीं हूँ । न कभी हुआ हूँ, न हो सकूंगा ।
आज तो जोकर के साथ अपने त्रेपनवें वर्ष की समता बिठाते-बिठाते ही सांझ हो गयी। अब कुछ क्षणों में, यह त्रेपनवां पत्ता भी मेरे हाथ सरक रहा । लगता है अब जो हाथ में शेष है वह ताश की खाली डिब्बी की तरह महत्वहीन । एकदम रिक्त और निःसत्व | परन्तु सोचता हूँ, यह निराश होने और खिन्न होने की बात नहीं है। यह तो खुशी मनाने की बात है कि अब हाथ एकदम साफ हैं। बाजी बिछाने का उत्साह और अपनी परायी जय-पराजय की आकांक्षा से ऊपर उठकर, अब समता और संक्लेश हीनता की हवा में सांस लेने का समय मिला है। जीवन में जो भी उलझाने वाला था, दांव लगाने के लिए, खेलने के लिए, तुरुप लगाने के लिए, किसी को पीटने के लिए, और पिटने के लिए भी, उस सबसे उपराम होकर, देना पावना का हिसाब बराबर करके, क्यों न अब जीवन को ऐसे जिया जाये कि जय-पराजय की भावना ही मन में न उठे । जीवनसे इस त्रेपनवें पत्तेका जाना, क्या पूरे अभिमान का जाना नहीं है ? क्या यह पूरे अहंकारका विसर्जन नहीं है ? यदि इसे अपने अहंकार का विसर्जन स्वीकार किया जा सके, तो निश्चित ही शेष जीवन अपने लिए अधिक शान्तिपूर्ण और दूसरों के लिए अधिक कल्याणकारी बनाया जा सकता है। जितने भी इकत्तीस अक्टूबर देखना अब शेष हों, उनके माध्यम से अपने परिवेश में अधिक उल्लास, अधिक आनन्द बिखेरा जा सकता है। पर क्या यह संभव होगा
पाल ले इक दर्द नादाँ जिन्दगी के वास्ते ।
वरना सेहत के सहारे जिन्दगी कटती नहीं ॥
नीरज जैन
- जन्म : ३१ अक्तू. १९२६, रीठी (जबलपुर, म.प्र.)
- शिक्षा : एम.ए. ( पुरातत्त्व-कला), अदीब कामिल।अतीत-संघर्षों से भरा। साहस से ओतप्रोत । पैंतालीस वर्ष की आयु में कालिज में दाखिला लेकर छोटे बेटे के साथ बैठ कर बी.ए.। बुढ़ापे में एम.ए.। पत्रकारिता और धार्मिक-अध्ययन में रुचि । कविता, शेरो शायरी में दखल |
- सारा जीवन प्राचीन इतिहास और कला की खोजबीन में समर्पित | फोटोग्राफी और संकलन में रुचि ।
- साहित्य सेवा–लगभग ८० अनुसंधानात्मक लेख; तथा खजुराहो, कुण्डलपुर, नवागढ़ आदि पर परिचय पुस्तकें प्रकाशित । 'खजुराहो के जैन मन्दिर' अंगरेजी में अनुवादित, प्रकाशित— जैन मानुमेन्ट्स एट खजुराहो' और 'महोत्सव-दर्शन' । कतिपय स्फुट सामयिक लेख, अनेक ललित निबन्ध तथा चार-पाँच कविता-संग्रह भी प्रकाशित । गोमटेश गाथा के लेखन से उन्होंने पौराणिक आख्यानों को आधुनिक भाषा और नवीन पद्धति में प्रस्तुत करने का जो अभिनव प्रयास किया, उसे देश - विदेश में सराहना मिली
- अनेक सामाजिक संस्थाओं, तीर्थ क्षेत्रों और साहित्यिक गतिविधियों से सम्बद्ध । प्रायः भ्रमण शील, कभी-कभी घर पर भी उपलब्ध रहते थे ।
- मृत्यु - २६ मार्च २०१३
- ^ "Niraj Jain", Wikipedia, 2021-07-31, retrieved 2021-09-13