भटनेर दुर्ग गाथा [भाग-एक]


एम. ए. राठौड़

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कर दी गयी चिनाई/एक- एक ईंट को जोड़कर/भटनेर के दुर्ग की/आततायियों से रक्षा के लिए/न जाने कितनी ही कोमलांगियों के/नाजुक हाथों ने /अपने वजूद को बचाने के लिए/अपने परिवार के साथ।

कहते है अभेद्य बना दिया इसे/अपने खून-पसीने से थापी गयी/अनगिनत पक्की ईंटों से/जिसे हमने सीखा कालीबंगा के आँगन में/एक-एक बारीकी के साथ।

न जाने कितनी ही/पीढ़ियां गुजार दी हमने पुरखों की/अपनी धरा, अपनी आन-बान में /अपनी पगड़ी, अपनी शान बचाने में/खेत में काम करते दो हाथों के लिए।

धान के लहलाते खेत और/सोने की चमक लिए गेहूं की बालियां/उस नवोढ़ा के घूँघट की आड़ में/खिल उठे थे खेत में /धवल रूप लिए कपास के टिंडे/ और ग्वार की कच्ची फलियां/हाँडियों में खुश्बू को भरकर/तैयार करती थी ईंट भट्ठों के लिए/और राजशाही तलवारों को चमकाने के लिए।

नहीं कोई थी दरो-दीवार/इससे पहले यहां- वहां आपपास में/और लोगों के दिलों मे,/केवल फर्क बना रहा/जागीरदारों और आमजन मे/पर अपने वजूद के लिए/देनी पड़ती थी अपनी कुर्बानी सीमाओं कीे रक्षा की खातिर/एक आम मजदूर को भी। _______________________________________________________________________________________________________________________________________________

भटनेर दुर्ग गाथा [भाग-दो] _______________________________________________________________________________________________________________________________________________ उत्तर- पश्चिम सीमा का/ये प्रहरी भटनेर खड़ा रहा/एक टांग पर/बन फकीर की टेर-सा/और सींच रही थी स्वयं सरस्वती/अपने भक्तों को/ज्ञान की घग्घर से/उसके चरण पखारने वाले/अनगिनित कलमकारों को।

नहीं था इतना आसान/ऐसे धूल चटाना युद्ध और द्युद में/क्योंकि नर्तक नाच रहा था/बन चंडी-सा अपनी ही धुन में/और नर्दक उसी ताल और लय में/लिख रहा था/अमिट वर्षों का इतिहास/अपनी ओजपूर्ण शब्द शैली में।

क्योकि शब्द की सीमा नहीं थी/और समय की सीमा में नहीं/बंधा था शब्द इसलिए आसान नहीं था/वर्षों के इतिहास को समेटना,/फिर समय बदला था शब्द नहीं।/संगीत की धुन में भी वही राग और वही लय विद्यमान थी/सदियों से यहां- वहां भटनेर की/सरसब्ज लहलती नगरीय परिधि में।

जहां रच डाले गए समस्त वेद/और उनके समस्त श्लोक और ऋचाएं/अपनी लय और सुर के साथ/सरस्वती की कलकल करती जलधारा/और कलरव करते पक्षियों की धुन में/एक ऋषि परम्परा के साथ। ______________________________________________________________________________________________________________________________________________

भटनेर दुर्ग गाथा [भाग-तीन] ________________________________________________________________________________________________________________________________________________ खड़ा हूँ मै भटनेर अडिग-सा जैसे कोई दरवेश,/पहने हुए अपना ही अद्भुत-सा विनम्रता का वेश।/समय के साथ मैने ही अपना रिश्ता निभाया,/आया जो यहां कोई भी उसको गले लगाया।

दूर कहीं सुनता हूँ मैं एक अजान-सी,/घोड़ों के टापों के बीच करतब कमान की।/दुश्मन चला आ रहा है अपने गुरुर में,/चढ़ आया बलिदान का रंग मेरे शरूर में।

कर तैयार बरछी, भाले और तीर कमान,/लेस कर दिया बुर्जियों में युद्ध का सामान।/हर एक दुश्मन को चटाने चरणों की धूल,/बन आया जो बैरी दर्द भरी आँखों का शूल।।/उड़ते गर्द का हुआ जो तनिक आभास,/कर दी समस्त सेना को दुर्ग के आस-पास।

तैमूर से लड़ने का अब सही वक्त आ गया,/हिंदुस्तान में देखो उसका कहर छा गया।/लुटती अबलाओं में कैसा रुदन छा गया,/हर एक योद्धा बन वीर लड़ने को आ गया। _______________________________________________________________________________________________________________________________________________

  भटनेर दुर्ग गाथा'

[भाग-चार] _________________________________________________________________________________________________________________________________________________ मै भटनेर अपने जन्म से ही/सहन कर रहा था प्रतिकार से भरे /असंख्य आक्रमण तीसरी शताब्दी से ही/जब दूर- दूर तक फेला था/रेत का समंदर अपने पूरे यौवन मेँ।

आखिर पानी की तलाश में/निकल पड़ा था लश्कर कारवां के साथ/खानाबदोश सरदारों के एक फ़रमान पर /लुटाने अपनी हैसियत और लूटने/अकूत धन-दोलत मेरे खजाने से।

सुना है मैंने अपने बुजुर्गों से/लील गया था समंदर कालीबंगा/और उनके आशियानों को/पलभर में सरस्वती की प्रबल धारा से/जहां किलकारी भरी थी मैंने /माँ की गोद से उस विभत्स रात को।

एक मिट्टी से बने ऊँचे धोरे पर/मैं सिसकता रहा उस रात पलभर/छाती से लगने अपनी माँ से/जहां छोड़ गयी वह मुझे रोते बिलखते/अपने ही बल-बूते पर जीने के लिए।

चिथड़ों में लिपटा मैं भटनेर/मरा नहीं था पलभर भी /क्योकि मेरे में ही पल रहा था/आने वाला कल,/कल-कल बहती जलधारा के पास/जहां मैने बसाया अपना साम्राज्य/अपने दुर्ग के बलबूते पर। ________________________________________________________________________________________________________________________________________________

   भटनेर दुर्ग गाथा

(भाग-पांच) ______________________________________________________________________________________________________________________________________________ संवेदनाओं के सागर में पला मै भटनेर,/पल-पल लुटाता रहा अपनी हसीन जवानी/अपनी ही जाति के, अपने ही लोगों के लिए/और लूटते रहे वे आदमखोर मुझ अबोध को/नोंच-नोंच कर भूखे भेड़िये की तरह।/पर नारी को देखकर ललचाती रही/उनकी भूखी और तानाशाही नज़रें/उन पर जो मेरी ही गोद में पली-बढ़ी थी/थाप-थाप कर ईंटें अपने नाजुक हाथों से,/सुकुमारियों के दाड़िम से भरे/कपोल गालों को देखकर/बेआबरू करते रहे कई सरदार/और जागीदार अपने-अपने मदहोश में।

क्यूं करता है समझोता वह शक्स/अपने आपसे जब शहंशाह अकबर ने/माफ़ नहीं किया तनिक उसे भी /जो उसका ससुर था रिश्ते-नाते मेँ,/किन्तु उसके अपने ही अहाते में /पीट-पीटकर उसके विरुद्ध भी/कर दी बगावत उन मेहनतकश हाथों ने,/कमाते थे जो मेहनत से /और खाते थे इज्जत के साथ /दो रोटियां दो जून की/अपनी भूख मिटाने के लिए।

हाँ, वीर था वो, गंभीर था वो/जिसने पानी पीया भटनेर नगरी का/तपते बदन और तपती दोपहरी में/ईंट भट्ठों में सिलगाते हुए लुगदी को/भटनेर की नींव रखने के लिए/और उसकी वर्षों सार-संभाल की/एक प्रहरी बनकर सच्चे अर्थों में।

मैं भटनेर आज भी खड़ा हूँ /अलग-थलग-सा अपने अतीत की तरह/जिसने मौका दिया उन तमाम शहंशाहों को/सुख से सँभालने तख्तो-ताज को/जबकि मेरी निगेहबान आँखें गड़ी है आज भी सुदूर पश्चिम के थार की रक्षा में। ________________________________________________________________________________________________________________________________________________

  भटनेर दुर्ग गाथा

(भाग-छः) _______________________________________________________________________________________________________________________________________________ मैं भटनेर केवल एक दुर्ग ही नहीं हूँ/घग्घर के मुहाने पर खड़ा/निश्छल प्रेम-सा अपनी प्रियतमा के लिए;/मुझमें बसता है आमजन का प्यार।/न जाने कितनी ही शताब्दियों से/जी रहे हैं लोग मुझे अपना समझकर/जिन्होंने केवल मेरे ही खातिर/लुटा दिया अपना घर-बार/करने मेरी रक्षा और मेरे द्वारा /दुश्मन को याद दिलाने छटी का दूध।

आये थे बहुत सूरमा दूर देश से/यदा-कदा, सर्वदा अपनी मर्दानगी दिखाने;/मुझसे लड़कर मेरा ही वरण करने/और रह गए गुलाम-से बनकर;/मेरे अद्भुत सुरक्षा कौशल को देखकर/और दबा ली उन पठान सरदारों ने/कसकर अपने दांतों तले उँगलियाँ /और हो गए हतप्रद; ठगे से।/आखिर किस-किस से लड़ें/और किसको विजित करें यहां?

जहां पग-पर बसते है योद्धा,/संत, सूरमा और दरवेश अपने सादे वेष में,/इस यौधेय देश मे; पहनकर केसरिया बाना /और रमा कर भभूत अपने कंटक शरीर पर/जहरीले पीवणे, गोयरे और बिच्छुओं के संग/रहते हैं वो हर पल चौकस अपने दुश्मनों से /खनकती तलवारों के साथ मैदान-ए-जंग में।

जन्म ले ही लिया था पीरों के पीर गोगाजी वीर ने/ददरेवा की धरती पर महमूद गजनबी के काल में,/मुझ भटनेर को छुड़ाने उसके चंगुल से /और भांप कर उसके मंसूबों को हर हाल में। और नतमस्तक हो गए ख्वाजा के कारिंदे/आये थे जो उसके साथ जंग के मैदान में।/रहे गए वो हमेशा के लिए मेरे ही आँगन में/बसाकर अपनी संस्कृति अपने ही अंदाज में। _________________________________________________________________________________________________________________________________________________

  भटनेर दुर्ग गाथा

(भाग-सात) _________________________________________________________________________________________________________________________________________________ मेँ भटनेर गवाह हूँ /इस बात का,/उस विभत्स रात का।/कहीं नहीं हुआ ऐसा आस-पास में,/आज तक के इतिहास में।

किया था पहली बार /मुस्लिम ललनाओं ने/जोहर का इस्तकबाल,/यूं तो इजाजत नहीं थी उनको/बेपर्दा रहे हर हाल।

हिन्दू कोमलांगियों के साथ,/मिला कर हाथ से हाथ।/तैमूर के गाल पर देने चांटा,/किया था जिसने कत्लेआम /और धर्म को बांटा।

रुदन और चीत्कार से/कांप उठा भटनेर,/जोहर की ज्वाला में जलने /तनिक नहीं थी देर।/लहू लुहान हो गयी /देखो! घग्घर की जलधारा,/बूढ़े और बच्चों को भी/उसने चुन-चुन कर मारा।

कौन है यहां जो नहीं आया/लेकर मन में कपट और शूल,/शेरखां की समाधि पर/क्यूं न आते चढ़ाने फूल।/कामरान जो भटका भाई से/करके मुझ पर अधिकार,/देख अकूत धन सम्पदा पाकर भाई का भाई में जगा प्यार।

सूरतसिंह ने बदली सूरत/मेरे वतन की रख ली लाज,/हनुमानगढ़ सा दिया उपहार /और नयी दुनिया के सम्भाले काज।/छीनकर मेरा अधिकार/जाब्ताखां भाटी से,/तिलक किया उसने मस्तक पर मेरी उर्वर माटी से।

मंगल के दिन,/हनुमानजी के नाम पर/रख दिया हनुमानगढ़ मेरा नाम,/धान का सा कटोरा/आया थार में देखो कैसा काम। ______________________________________________________________________________________________________________________________________________

 भटनेर दुर्ग गाथा

(भाग-आठ) _______________________________________________________________________________________________________________________________________________ मैं भटनेर अपने स्वर्णिम अतीत से ही/जाना जाता हूँ अपने मजबूत इरादों /और मजबूत चरित्र-रूपी प्राचीर के लिए;/जिसमे ज्ञानरूपी झरोंखे हर वक्त रहते हैं तैनात/मजबूत बुर्जियों पर लगे मचानों की भांति।

हाँ, मैंने देखा। दया; धर्म के सब सरोकारों को/एक-एक नेकी की लिए सेवा करते हुए लंगरों में;/तीर्थ के लिए जाते जथेदारों की सेवा में;/ख्वाजा शरीफ की जियारत के लिए जाते/जायरीनों की देखरेख में;/अनगिनत सेवाभावी धर्मात्माओं को/जो रहते हैं हर वक्त तैयार, कृतसंकल्प /और वफादार अपने तनिक से भी काम में।

यहाँ पकता रहा काचर;/फोफळियों का साग प्रेम की हाँडियों में/हर जात-धर्म के जातरुओं के लिए/और भावनाओं की कुण्डी में पीसते रहे/भांग;और चिलम के लिए तम्बाकू/गुड़गुड़ाते हुक्के के साथ सहस्त्रों शताब्दियों से /बैठकर मखमल की चादर पर।/खील-मखाणे और सवामणी के भोग का/एक साथ आनन्द लेते हुए/मंदिर, मस्जिद /और गुरुद्वारों में बैठकर पाठी के पास/या फिर शिवालयों की ड्योढ़ी पर बैठ/रमाते भांग की भस्म अपने अंग-प्रत्यंग में।

किन्तु गिर रही है ये प्राचीर आज/भरभराकर एक-एक मेरी ही नींव से/चिनाई और चरित्र की/जबकि सिमट रहे हैँ दायरे/पल-पल बदलते समय और संस्कृति के साथ/आखिर किसको है मेरी जरूरत अब/बूढ़े बुजुर्गों की तरह/अपने पैरों पर खड़े हो जाने के बाद?

-एम. ए. राठौड़ सर्वाधिकार सुरक्षित। 12/11/2017

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'MY PET RATS
A Story by M.A.Rathore
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“It is better to pet a cat at your home. It will kill all the rats; and you will feel relieved after getting rid of all the rats which are destroying the provisions at your house and tease you at nights; while they acrobat on an electrical wire which passes over you where you sleep.” Won’t they tease you like this, Sir?” asked a boy who was so curios and was looking serious to solve my present problem within a short time.

“Sir, do you believe in Lord Ganesha?

“Yes, but”

“The mice are the vehicle of Lord Ganesha. If you want to get rid of them, it is better to serve them ‘Modak’, the most delicious confectionary Lord Ganesha used to like.” suggested another boy who was so smart yet with a traditional bent of mind.

“Hum, Ok. I’ll try.”

“I would suggest you to pour petrol or kerosene over the hole where the rats live in your house. It will burn them all. Another boy suggested me who looked mysteries in his looks and had a long hair cut in some modern style.  

“Hum, thank all of you for suggesting me so many ways to get rid of the rats those that have been teasing me the whole nights.” I said.

I was presiding over as the guest of the last session of the five days SUPW Camp at Govt. Boys School, Mundwa. By the time we were in some teachers’ training camp on special education for the disabled children or the children with special needs. Mr. Kasaniya was the head teacher and the manager of the camp. He was the backbone of the institution; amiable and kind hearted by nature. On the concluding day I was asked to address the volunteers at the camp. It was really a great experience with the grownups. They were all respectful students; young and getting maturity. I was in terror of the rats those that had usurped my house with their band of robbers. I couldn’t able to sleep at nights due to the access of them. They were everywhere. At day time I used to think they were playing and won’t destroy anything from my house. But it was the way I was thinking. They started playing the entire nights and cut everything they came to contact; even my documents were not safe from their clutches. All of a sudden there came an idea. I thought I should ask from the students for their views regarding the issue. The session ended with laughter and so many questions left to answer them.

I came to my house with so many brooding in my mind which was going on. As soon as I entered my room I forgot all my sorrows as usual while I sat with my pen to compose a poem on daily bases. The last session took me midnight and a call for sleep. I went to sleep and had a deep sleep. All of a sudden I was awaken by the rats which jumped right on my chest; I got up terrified; threw the rats far from my body; sat on my cot throbbing and with sweat; sued them away and went to sleep again, but what could be done? They made me woke up the whole nights. I sat again and tried to think the different ways of getting rid of them. I remembered the counseling of the boy who suggested me to serve ‘modak’ to the rats. It was winter. My mother had sent some ‘modak’ made of pure ‘Deshi’ ghee and so many other things we generally add; prepared at my home with lots of love for me. I got up and threw a piece of ‘modak’ in and around the hole which was made round by biting the corners of the both the doors just between the centre; and went to sleep again. Yes. I got up late in the morning next day though I was getting late for my school. The next day while I was preparing my dinner I had an idea flashing again in my mind. I made a chapatti; added some ghee on it and put inside the hole. The whole night I was sleeping with ease though sometimes I could hear the quarrelling of rats but I was not much disturbed by them that night. The next day I got up; I had an idea again which was as fresh as my creative mind then. I started thinking like Skinner and Povlock, the great psychologist and scientists who had experimented on the animals like rats, cats, dogs and on monkeys and invented so many ways to control the behaviour of animals as well human beings.

Now I had understood all. I began to behave friendly with the rats and provided their proper diet to them just before eating my own meal. I whistled in a shrilled voice and put the food over there. I managed their food even on the occasions when I had invitations from some marriage party. I used to collect something for the rats from the nearby houses in the neighborhood.

Months rolled by. I noticed there were not more than one or two rats left. And I had hardly seen them together outside the hole of the room where they had made a perfect hole in the centre of the doors. It was not easy to enter any cat through the hole. One of the rats was growing in size. It was not easy for it to cross the door through the hole now. As usual I provided them their meals. After winter vacation I came back and saw there, there were small rats playing there as if they were enjoying their holidays at their grand paternal house with me. I felt they were my own children and grand children. Together with them I used to dine as if it was my own family. Now they were my pets. The time I had to leave my old rented house I felt panged for my pets. Even while I am writing the story of my pets, my heart is benumbed instantly for them. “Had the cute pets with me?”Jai Ganesha. © 2017