श्री दुर्गा पूजा समिति धनौर
1940 से लेकर 2021 तक के पूजा का इतिहास
धनौर गाँव मे दुर्गा पूजा की शुरुआत सन 1940 मे गाँव के मुखिया स्व ॰ जीयन प्रसाद सिंह और स्व॰ जयनन्दन प्रसाद सिंह के द्वारा किया गया । पूजा की शुरुआत इनके अपने दरवाजे पर ही किया गया 1940 से लेकर 1977 तक इन्ही लोगो के द्वारा पूजा का संचालन किया गया ।
1978 से धनौर मे सार्वजनिक दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई । जिनमे प्रमुख लोग इस प्रकार रहे
(1) सियाराम सिंह
(2) नागेश्वर प्रसाद सिंह (बाबा)
(3) रामनाथ सिंह
(4) नारायण मिश्र
(5) उमेश प्रसाद सिंह (बंधु जी )
इन्ही लोगो के सहयोग से सार्वजनिक पूजा की शुरुआत की गयी । कुछ ग्रामीणो के द्वारा इस सार्वजनिक पूजन का विरोध भी किया गया । मंदिर का अपना जमीन नहीं होने के कारण 1978 मे पूजन का आयोजन योगी सिंह के दरवाजे पर किया गया । 1979-1980 तक पूजा का आयोजन जयनन्दन प्रसाद सिंह के दरवाजे पर किया गया । 1981 मे पुनः योगी सिंह के दरवाजे पर पूजा आयोजित की गयी
1982 मे दुर्गा पूजा समिति का गठन किया गया तथा उस समय के वर्तमान मुखिया जयनन्दन प्रसाद सिंह के द्वारा मंदिर हेतु भूमि प्रदान की गयी । पूजा समिति के अध्यक्ष - श्री रामनाथ सिंह, उपाध्यक्ष - श्री सियाराम सिंह, सचिव - रामनरेश मिश्र हुए एवं अन्य सहयोगी के रूप मे गणेश मिश्र , अवधेश प्रसाद सिंह (पहलवान चाचा ), नागेश्वर प्रसाद सिंह (बाबा), बलिराम प्रसाद सिंह ,प्रोफेसर कृष्णचंद्र प्रसाद सिंह, ध्रुव प्रसाद सिंह , विभीषण प्रसाद सिंह एवं अन्य कुछ ग्रामीणो द्वारा शुरुआत की गयी । 1990 मे श्री अवधेश्वर मिश्र भी पूजा समिति मे शामिल हुए ।
मंदिर निर्माण
1982 मे जयनन्दन सिंह द्वारा दी गयी भूमि पर पूजा समिति द्वारा मंदिर का निर्माण किया गया एवं पूजन आरंभ किया गया । उस समय मंदिर के ऊपर खपरैल की छत थी । पुनः 2000 ईस्वी के आस पास पूजा समिति के सदस्यो एवं ग्रामीणो के सहयोग से नए मंदिर के निर्माण का प्रस्ताव रखा गया तथा नए मंदिर बनाने की शुरुआत हुई जिसमे परमानंद प्रसाद सिंह मुख्य सहयोगी हुए । मंदिर निर्माण का काम लगातार चलता रहा एवं सभी लोगो के सहयोग से 2008 ईस्वी मे मंदिर के प्रथम तल्ले का निर्माण सम्पन्न हुआ, पुनः 2009 मे ऊपरी तल्ले एवं मंदिर के गुंबद का निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ । मदिर के गुंबद पर सात कलश की स्थापना की गयी । मंदिर मे लगातार रख रखाव एवं विकास का कार्य चलता रहा है ।
पूजन विधि एवं पद्धति
पूजा विधि एवं पद्धति जयनन्दन प्रसाद सिंह के द्वारा बनारस के विद्वान पंडितो को बुलवाकर शुरू करवाई गयी । 1979 तक पूजन बनारस के विद्वानो द्वारा ही सम्पन्न हुई । सन 1979 मे यजुआर के महान व्याकरनाचार्य एवं विद्वान पंडित स्व॰ लालकृष्ण झा के द्वारा पूजन विधि मे संसोधन किया गया । ये आजीवन इस पूजन मे प्रधान पंडित के रूप मे अपना सहयोग दिये । इन्होने 1995 तक माता के चरणों मे अपनी सेवा दी । 1996 मे श्री रामनरेश मिश्र जी इस पूजा के प्रधान पंडित हुए एवं गणेश मिश्र सहायक पंडित हुए । वर्तमान तक पूजा उन्ही के देखरेख मे होता है परंतु शारीरिक अस्वस्थता के कारण 2019 तक ही पूजन करवाए । 2020 से प्रधान पंडित के रूप मे श्री चन्दन मिश्र जी को नियुक्त किया गया । सन 2021 से दैनिक पुजारी के रूप मे देवचन्द्र मिश्र उर्फ गोपाल मिश्र को नियुक्त किया गया ।
बलि प्रथा का इतिहास
प्रारम्भ से सन 1992 तक बलि प्रथा के द्वारा माता की पूजा होती थी। 1993 मे सुरेश प्रसाद सिंह (भूतपूर्व सैनिक ) के द्वारा इस प्रथा को बंद करवाया गया । तब से आज तक पूजन की वही प्रथा चलती आ रही है बलि प्रथा को पूर्णरुपेन बंद कर दिया गया हैं ।
मूर्ति निर्माण
1978 से वर्तमान तक मूर्ति के कला, निर्माण एवं तरीको मे कोई परिवर्तन नही किया गया हैं । मूर्ति के निर्माण की शुरुआत मूर्तिकार स्वर्गीय लोची पंडित के द्वारा की गयी तथा आज भी उन्ही के वंशज द्वारा निस्स्वार्थ सेवा भाव से मूर्ति का निर्माण किया जा रहा हैं । पंसारी के रूप मे रामबालक ठाकुर एवं मिश्री लाल भण्डारी के वंशज के द्वारा निस्स्वार्थ माता की चरणों मे सेवा दिया जा रहा हैं ।
माता का पूजन
नवरात्र के प्रथम दिन कलश स्थापन किया जाता है जिसमे 5 जगहो की मिट्टी लायी जाती है एवं कलश को स्थापित किया जाता है । षष्टी के दिन सांयकालीन बिल्ब निमंत्रण होता है जो गाँव के पूर्वी छोर पर होता हैं। पुनः सप्तमी के दिन प्रातः कालीन बिल्ब को तोर कर पालकी मे रखकर लाया जाता है तथा उस बेल से माता की आँखें खुलती है तत्पश्चात माता का पट श्रद्धालुओ के लिए खोल दिया जाता हैं । महानवमी के दिन भव्य हवन का आयोजन किया जाता है जिसमे समस्त ग्रामवासी भाग लेते है । पुनः दशमी को अपराजिता देवी का पूजन किया जाता है तथा शाम मे माता का विसर्जन बागमती, लखनदेई एवं लक्षम्णा नदी के पवित्र संगम मे किया जाता हैं । यहाँ के पूजन का विसर्जन बहुत ही अद्भुत होता हैं माता की विसर्जन यात्रा कन्धे पर ही हमेशा होता आया है एवं वर्तमान मे भी माता कन्धे पर सवार होकर ही विदा लेती हैं । माता के विसर्जन मे कई हज़ार लोग शामिल होते हैं एवं माता को विदाई देते है ।
मंदिर निर्माण एवं पूजा मे समस्त ग्रामवासियों का तन, मन, एवं धन से पूरा सहयोग मिलता हैं।