परिचय इस कला का सबसे पहले जिक्र 1864 में अस्सिटेंट कलक्टर फेडरिक सीमन ग्राउस ने किया था। ग्राउस ने अपने कई संस्मरणों में तारकशी का जिक्र किया है। ग्राउस इस कला से बेहद मुत्तासिर थे। चौहन वंश की एक शाखा जो मैनपुरी आई तो उनके साथ एक ओझा परिवार भी आया जो काष्ठकला में माहिर था। इस परिवार की बनाई हुई कई चीजें लखनऊ मूजियम में रखीं हैं।
इस कला की शुरुआत कैसे हुई ये कहना मुश्किल है। लेकिन हिंदुस्तान में जब ब्रितानी हुकमत का सिलसिला शुरू हुआ तो तारकसी सात समन्दर पार पहुंच गई। हिंदुस्तान से सीधे इस कला को पहचान नहीं मिली। यूरोप के देशों में इस कला को जबरदस्त लोकप्रियता हासिल हुई। 18वीं सदी में तारकसी के चाहने वाले पुरी दुनिया में हो गए, लेकिन अफसोस मैनपुरी में तारकसी की कला दम तोंडती नजर आ रही है। कद्रदान होने के बाद भी इस कला को अपनाने वालों की कमी इस कला के बजूद के लिए खतरा बन गई है। मैनपुरी की भोगोलिक स्थिति के चलते तारकसी मैनपुरी की पहचान बनी। मैनपुरी में शीशम के पेड़ अधिक हैं।
एक समय था जब मैनपुरी के हर घर में तारकसी की झलक मिलती थी। प्रसिध्द इतिहासकार परसी ब्राउन ने भी इस कला का जिक्रकिया है। आजादी के बाद तारकसी से बनाई गई शीशम की लकड़ी से निर्मित काष्ठ हाथी की प्रतिमा शिल्पकार रामस्वरूप ने राष्ट्रपति को भेंट की। मैनपुरी में रामस्वरूप ने इस कला को जीवित रखने में विशेष योगदान दिया। मोहल्ला देवपुरा में बना उनका कच्चा-पक्का मकान उनकी कला की झलक आज भी पेश करता है। शीशम की प्लेट पर बनी तारकसी की आकृति कलाकृतियां उपहार में देने का चलन है। रथों का प्रयोग इतिहास से मिलता है।
तेजगति से चलने वाले रथ और मंझोली के पहिया तारकसी कला का शानदार उदाहरण है। आधुनिकता और पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से तारकशी कला का नुकसान हुआ है। भवन निर्माण में लोहे का अधिक प्रयोग के चलते अब घरों में इस कला को जगह नहीं मिल पा रही है। उत्तर प्रदेश