शहीद-ए-आजम भगतसिंह की फांसी के लिए गांधी जी को ना जाने क्या कुछ कहा जाता है, आजकल तो सावरकर से भी संबंध जोड़े जाने लगे हैं तो ऐसे में अभिनव पांडेय द्वारा लिखी गई रिपोर्ट सभी को पढ़नी चाहिए।

बात 28 अक्टूबर 1928 की,साइमन कमीशन का लाहौर में तगड़ा विरोध हुआ,बौखलाए अंग्रेजों ने क्रूरता की लाठियां चलवा दी उप निरीक्षक सांडर्स ने लाला लाजपत राय जी पर सीधी लाठी चलाई, एक सीने पर, दूसरी कंधे और तीसरी सिर पर लगी। बुजुर्ग लाला जी लाठियों की मार से पूरे 18 दिन लड़े और 17 नवंबर को देह त्याग दिया। लाला जी की नीतियों से भगतसिंह भले ही खिलाफ हो गए थे, मगर लाला जी पर पड़ी लाठियों ने उन्हें हिलाकर रख दिया। 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में अंग्रेज सुप्रीटेंडट स्कॉट को मारने का प्लान बना।स्कॉट को पहचानने की जिम्मेदारी जयगोपाल की थी, जिसने आगे चलकर भगतसिंह से गद्दारी की, जयचंद बना और सरकारी गवाह बन गया। खैर! स्कॉट की जगह सामने 21 साल का सांडर्स आ गया राजगुरु ने पहली गोली में सांडर्स की खोपड़ी खोल दी। भगतसिंह ने 3-4 गोलियां और दाग दी ताकि कोई गुंजाइश ना रहे। इसके बाद भगतसिंह भूमिगत होने कलकत्ता चले गए।

उधर भगतसिंह के कानों में फ्रांसीसी क्रांतिकारी वेलां के शब्द गूंज रहे थे जो लाहौर के नेशनल कॉलेज में पढ़े थे. शब्द थे..'बहरों को सुनाने के लिए धमाके की

जरूरत होती है', कलकत्ता से आगरा आए, बम बनाने का काम सीखना शुरू किया। गांधी जी और सरदार भगत सिंह दोनों आजादी चाहते थे, मगर दोनों के रास्ते अलग थे।  हिंसा और अहिंसा को छोड़ दें तो दोनों में कई समानताएं थी। दोनों ही सामान्य गरीबों के हितों को अहमियत देते थे। भगत सिंह नास्तिक थे तो गांधी जी परम आस्तिक, लेकिन धर्म के नाम पर फैलाई जाने वाली नफरत के खिलाफ थे।

खैर !कुछ दिन बाद भगतसिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ असेंबली सभा में बम फेंका, इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मूर्दाबाद के नारे लगाते हुए लाल पर्चे फेंके।पर्चे में लिखा था हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं, मगर मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त करने के लिए क्रांति के अवसर पर कुछ न कुछ रक्तपात अनिवार्य है

चाहते तो दोनों अफरातफरी के माहौल में भाग सकते थे, लेकिन उंगलियों पर पिस्तौल नचाते भगतसिंह वहीं खड़े रहे, जो उनकी फांसी का एक कारण भी बनी। क्योंकि बम फेंकने के मामले में उन्हें आजीवन कारावास की सजा हुई थी, लेकिन लाहौर केस में पाया गया कि जिस पिस्तौल से सांडर्स की हत्या हुई वो भगतसिंह की थी। व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी वाले फैला रहे हैं कि सावरकर भगत सिंह के आदर्श थे। मगर वो ये भूल जाते हैं जब सावरकर दर्जनभर मांफी मांगकर रत्नागिरी पहुंच चुके थे,भगतसिंह अपने वकील से कहते हैं- दुखी होने की जरूरत नहीं, ये तो अच्छी बात है कि इस उम्र में फांसी लगे और गाने लगते हैं दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी, खुश्बू-ए-वतन आएगी निचली अदालत ने भगत सिंह से पूछा था कि उनके इंकलाब का क्या भाव है तो वो कहते हैं क्रांति के लिए रक्तरंजित लड़ाइयां अनिवार्य नहीं, उसमें व्यक्तिगत रूप से प्रतिशोध की गुंजाइश रहती है। और इसके आगे बहुत महत्वपूर्ण बात बोलते हैं क्रांति बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं।क्रांति से हमारा प्रायोजन यह है कि अन्याय पर टिकी वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन होना चाहिए

मार्च1927 को भगतसिंह लाहौर में गिरफ्तार हुए, एक महीना रेलवे पुलिस जेल में रखा गया।इस दौरान पुलिस अफसरों ने उन्हें धमकाया-फुसलाया।लालच दिया गया कि तुम क्रांतिकारियों के खिलाफ बयान देकर वादामाफ गवाह बन जाओ, ऐसा करने से तुम फांसी की सजा से बच जाओगे,अदालत में पेश नहीं होना पड़ेगा और तुम्हें पुरस्कार भी मिलेगा। यहां तक कि ईश्वर से प्रार्थना करने के लिए भी प्रेरित किया। मगर व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के जो छात्र, अंग्रेजों से माफी मांगने वाले सावकर को उनका आदर्श बताने की कोशिश करते हैं। वो ये भूल जाते भगत सिंह ने एक पल भी ईश्वर से प्रार्थना नहीं की। असल में वो ईश्वर को मानते ही नहीं थे, संपूर्ण नास्तिक हो चुके थे। और कहते हैं 'मेरे लिए ये परख की घड़ी थी, मैं उस परख में सफल रहा। क्योंकि मैंने कभी ना प्रार्थना की ना कभी मैंने एक पल भी जान बचाने की सोची भगतसिंह दूसरी बार गिरफ्तार हुए तो लाहौर साजिश केस चला और इस पर उन्होंने जो लिखा वो बड़े ध्यान से पढ़ने की जरूरत है, अच्छी तरह मालूम है कि हमारे मुकदमे का फैसला क्या होगा, मुझे अपना जीवन आदर्श के लिए कुर्बान करना है, इस विचार के अलावा मुझे और किस चीज धैर्य है।किसी आस्तिक हिंदू को तो अगले जन्म में राज बनने की आशा हो हो सकती है, कोई मुसलमान या ईसाई कुर्बानियों के बदले में स्वर्ग में मजे की कल्पना कर सकता है, लेकिन मैं किस बात की आशा करूं। मुझे पता है कि जिस क्षण पैरों के नीचे से तख्ते खीचें जाएंगे, वही मेरा अंतिम क्षण होगा।' आगे कहते हैं मेरा या वेदों की शब्दावली कहा जाए तो मेरी आत्मा का खात्मा हो जाएगा।अगर मैं पुरस्कार के दृष्टिकोण से देखने का साहस करूंगा तो शानदार अंत वाला जद्दोजहद भरा जीवन ही अपने आप में मेरा पुरस्कार होगा, इससे ज्यादा कुछ नहीं'

खैर !अब आते हैं लाहौर सेंट्रल जेल पर,जो उनकी बलिदान भूमि रही जेल की कोठरी नंबर 14 इतना छोटा था कि 5 फुट 10 इंच लबें भगत सिंह जैसे-जैसे बस आ जाते थे, फर्श भी पक्की नहीं थी, जमीन पर खास उगी रहती थी, अब 23 मार्च की तारीख आ गई। फांसी दिए जाने से मात्र दो घंटे पहले उनके वकील प्राणनाथ मेहता मिलने पहुंचे। मेहता ने बाद में लिखा कि 'भगत सिंह अपनी कोठरी में पिंजड़े में बंद किसी शेर की तरह टहल रहे थे'।उन्होंने मेहता से पूछा कि आप मेरी किताब 'रिवॉल्युशनरी लेनिन' लाए या नहीं,जब मेहता ने उन्हें किताब दी तो वो उन्हीं के सामने पढ़ने लगे,मानो अब वक्त नहीं था। मेहता ने पूछा कि क्या देश को कोई संदेश देना चाहेंगे जवाब आया- सिर्फ दो संदेश...साम्राज्यवाद मुर्दाबाद, इंकलाब जिंदाबाद। इसके बाद जो भगत सिंह ने मेहता से जो कहा, उसे व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी वालों को जेहन को हिला देगा। भगत सिंह अपने वकील मेहता से कहते हैं-आप पंडित नेहरू और सुभाष चंद्र बोस को मेरा धन्यवाद पहुंचा दें,जिन्होंने मेरे केस में गहरी रुचि ली थी शहीद-ए-आजम ने ये बात इसलिए कही क्योंकि 8 अगस्त 1929 को पं.नेहरू जेल में भगतसिंह और उनके साथियों से मिले, और 9 अगस्त को बयान जारी कर अनशन कर रहे भगतसिंह और उनके साथियों की स्वास्थ्य पर चिंता जताई। और कहा 'लाहौर जेल में भूख हड़ताल करने वाले लोग अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरे कैदियों के लिए कष्ट और तकलीफ झेल रहे हैं, जिसे झेलना विरले लोगों के ही बस की बात है मगर नेहरू साथ ही ये भी कहा करते थे कि भगतसिंह की बहादुरी को सलाम है, मगर हमारा रास्ता अलग है। भगत सिंह 'कीर्ति' में लेख के जरिए नेहरू से युवाओं को प्रेरणा लेने की बात कही थी। क्योंकि तरीका भले अलग मगर मंजिल दोनों एक थी...आजादी।

और जो सबसे बड़ी बात ये फैलाई जाती है वो ये कि भगतसिंह की फांसी रोकने के लिए गांधी जी ने कुछ नहीं किया, गांधी जी ने इर्विन के साथ समझौता किया मगर भगत सिंह पर कुछ नहीं बोले, इसका सच खुद गांधी जी बताते हैं 'भगत सिंह की बहादुरी के लिए हमारे मन में सम्मान उभरता है,लेकिन मुझे ऐसा तरीका चाहिए जिसमें खुद को न्योछावर करते हुए आप दूसरों को नुकसान ना पहुंचाए।'जाहिर है गांधी जी यहां हिंसा और अहिंसा का फर्क समझाने की कोशिश करते हैं।गांधी जी अपनी किताब स्वराज में लिखते हैं-मौत की सजा नहीं दी जानी चाहिए थी,भगत सिंह और उनके साथियों के साथ बात करने का मौका मिला होता तो मैं उनसे कहता कि उनका चुनाव हुआ रास्ता गलत और असफल है। गांधी जी कहते हैं हिंसा के मार्ग पर चलकर स्वराज नहीं मिल सकता, सिर्फ मुश्किलें मिल सकती हैं।, गांधी लिखते हैं मैं जितने तरीके से वायसराय को समझा सकता था,मैंने कोशिश की मेरे पास समझाने की जितनी शक्ति थी, इस्तेमाल की, 23 मार्च 1931 की सुबह मैंने वायसराय को निजी पत्र लिखा, जिसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेल दी भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन हिंसा को धर्म नहीं मानते थे। इन वीरों ने मौत के डर को भी जीत लिया था, उनकी वीरता को नमन है लेकिन उनके काम का अनुकरण नहीं किया जा सकता। खूनकर के शोहरत हासिल कर शोहरत हासिल करने की प्रथा अगर शुरू हो गई तो लोग एक दूसरे का कत्ल करके न्याय तलाशने लगेंगे

फांसी के दिन जो चिट्ठी लिखी वो दबाव बनाने के लिए ही लिखी थी, लेकिन ऐसा करने से फांसी नहीं रुकी। मगर एक सवाल ये भी है कि अगर फांसी रुक भी जाती तो क्या भगत सिंह इसे स्वीकार करते ? क्योंकि वो तो खुद अपनी माफी की अर्जी लगाने के लिए तैयार नहीं थे। पिता ने जब माफी की अर्जी लगाई तभी भगतसिंह ने चिट्ठी लिख कह दिया था कि मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि आपने स्पेशल ट्रिब्यूनल में दरख्तास्त पेश की पिता की अर्जी के बाद वो आगे लिखते हैं यह खबर इतनी दुखदाई है कि मैं इसे चुप रहकर बर्दाश्त नहीं कर सकता,इस खबर ने मेरे दिल की शांति खत्म कर दी है, मैंने कभी सफाई पेश करने की इच्छा प्रकट नहीं की और ना इस पर विचार किया पिता को लिखा खत लंबा है,फिर भी भगत सिंह आगे जो कहते हैं वो महत्वपूर्ण है पिता जी मैं बड़ा दुख महसूस कर रहा हूं, मुझे डर है कि आपकी आलोचना करते हुए कहीं अपनी परिधि लांघ ना जाऊं, फिर भी स्पष्ट कहना चाहूंगा, यदि कोई दूसरा व्यक्ति इस प्रकार का व्यवहार करता है (माफी मांगता है) तो मैं उसे देशद्रोह से कम कुछ नहीं समझूंगा मतलब शहीद-ए-आजम इस बात के बिलकुल खिलाफ थे कि कोई उनकी फांसी रुकवाने के लिए माफी मांगे मगर फिर भी गांधी जी की हमेशा आलोचना हुई कि जब भगतसिंह की फांसी नहीं रुकी तो उन्होंने इर्विन से समझौता क्यों किया। खूब विरोध भी झेला तो यहां ये समझना जरूरी हो जाता है कि जैसे भगत सिंह अपने इरादे के पक्के थे, वैसे ही गांधी जी भी अपने अहिंसा के रास्ते पर अडिग थे। वो भगत सिंह का बहादुरी को सलाम करते मगर उनके रास्ते का खुला विरोध करते हुए हिंसा को गैरकानूनी बताते।

दोनों अपने-अपने तरीके से आजादी तलाश रहे थे,मगर सवाल ये है कि जो कुछ नहीं कर रहे थे, वो गांधी जी की निंदा भगत सिंह से मोहब्बत दिखाने के लिए करते हैं, कि गांधी जी के खिलाफ द्वेष की वजह से। जाहिर है वो गांधी जी का विरोध करने के लिए ही ऐसा करते हैं। भगत सिंह की फांसी की सबसे बड़ी वजह उनके गद्दार साथी थे जयगोपाल जो खुद सांडर्स की हत्या में शामिल था, वो भगतसिंह,राजगुरु और सुखदेव के खिलाफ सरकारी गवाह बन गए, ये बात जबरन खूब फैलाई जाती है कि गांधी जी ने भगतसिंह को फांसी नहीं रुकवाई, मगर ये कोई नहीं बताता कि उनकी फांसी उनके गद्दार साथियों की वजह से हुई। और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि गांधी जी को हराए बिना सांप्रदायिकता नहीं जीत सकती। गद्दार जयगोपाल को कोई नहीं जानता, जयगोपाल और उसके दूसरे साथियों को कोई नहीं कोसता। मगर गांधी हर किसी के निशाने पर क्योंकि वो तो सर्वधर्म संभाव की सबसे मजबूत मीनार हैं, गांधी को गिरा दो बाकी इमरात खुद ही गिर जाएगी। मगर तय तो युवा पीढ़ी को करना है कि वो गांधी और भगतसिंह के विचारों की मीनार को मजबूत करेंगे या व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के कुचक्र में फंसकर उसे ढहाते चले जाएंगे। भगत सिंह कहते थे, हमें पढ़ना चाहिए, ताकि कुतर्कों को तर्कों से हरा सकें। अभिनव पांडेय जी ने भी इस लेख में एक छोटी सी कोशिश की है। सभी को हंसराज रहबर की लिखी भगत सिंह ज्वलंत इतिहास, और अमर शहीदों का स्मरण सभी को पढ़नी चाहिए नेहरू के पक्ष के लिए नेहरू मिथक और सत्य, गांधी जी के पक्ष के लिए हिंद स्वराज और रेहान फलज के लेख भी सभी को पढ़ना चाहिए। @Ashok_Kashmir जी की किताब 'उसने गांधी को क्यों मारा' में पूरा एक चैप्टर ही इसी विषय पर है। पढ़ सकते हैं, वहां और डीटेल मिल जाएगी।