आचार्य चक्रधर जोशी

हिमालय की तलहटी में बसे माँ गंगा के जन्मस्थल देवप्रयाग में जन्म हुआ एक ऐसे महान आत्मा का जिन्होंने अपने ज्योतिषी के ज्ञान से सम्पूर्ण भारतवर्ष को प्रकाशित किया । आचार्य पंडित चक्रधर जोशी मूलतः दाक्षिणात्य ब्राह्मण परिवार से थे। यहां पर यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि देवप्रयाग में बहुतायत ब्राह्मण दक्षिण भारत से हैं। जिनका संबन्ध आर्यों की पंच द्रविड़ शाखा से है। जोशी परिवार भी उसी में से है।

हिंदी तिथियों के अनुसार आचार्य जी का जन्म वामन द्वादशी को हुआ था। जोशी परिवार दक्षिण भारत में कहां से आये थे इस पर देवप्रयाग के बहुभाषाविद, संस्कृत के कवि नाटककार बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं. मुरलीधर शास्त्री के अनुसार :-

‘आंध्र प्रदेशे शुभ गौतमी तटे, धान्यै युते कांकरवाड़ ग्रामें

कौण्डिन्य गोत्रे द्विजवर्य गेहे, जातो हनुमासन विदुषाम वरिष्ठ।’

(स्मृति ग्रन्थ से)

आंध्रप्रदेश के गोदावरी जिले के कांकरवाड नामक ग्राम से जोशी जी के पूर्वज कौण्डिन्य गोत्रीय ब्राह्मण दामोदर भट्टारक (दक्षिण में विद्वान के लिए भट्टारक शब्द प्रयुक्त होता है जो उत्तर में आकर खासकर देवप्रयाग में भट्ट हो गया) देवप्रयाग आकर बसे थे।

दामोदर के वासुदेव, वासुदेव के हनुमान, हनुमान के व्यंकट रमण और जयकृष्ण पुत्र हुए। व्यंकट रमण अल्पायु हुए। जयकृष्ण के लक्ष्मीधर और खुशहाली राम दो पुत्र हुए। दोनों ज्योतिष और कर्मकांड में पारंगत थे। लक्ष्मीधर के दो पुत्र चक्रधर और पृथ्वीधर हुए।

जब आचार्य जी का अवसान हुआ तो देवप्रयाग में सभी को एक प्रकाशपुंज के बुझने का दुःख तो हुआ ही पर साथ ही एक परंपरा का अवसान भी दिखाई दिया। देवप्रयाग के तंत्र सम्राट, लेखक व कवि आचार्य जितेंद्र भारती ने जोशी जी के अवसान के बाद जो शंका व्यक्त की थी उस समय वही कहा जा सकता था। उन्हीं के शब्दों में :-

‘यंत्र वेधशाला में खड़े हैं, मुंह बाए हुए

पूछते हैं विलख कहां चक्रधर चला गया

पुस्तकों के पन्ने खुले बंद, पूछने लगे हैं

कुछ तो बताओ कहां चक्रधर चला गया।’

(स्मृति ग्रन्थ से)

सचमुच कुछ समय तक यही सत्य था परिवार आघात से उभर नही पा रहा था, यंत्रों पुस्तकों और संग्रहीत दुर्लभ वस्तुओं पर धूल की परतें चढ़ रही थी। ऐसा कोई कद्रदान शिष्य भी उन्हें उपलब्ध नहीं हुआ था जो इस निधि और परंपरा को संभालता और आगे बढ़ाता। हर तरफ अंधेरा ही था। लंबी अवधि तक नक्षत्र वेधशाला के आभा मंडल पर धुंध ही व्याप्त रहा।

पाठकों को यह भी विदित हो कि आचार्य जी प्रसिद्ध आध्यात्मिक साधक भी थे। जिन्होंने बदरीनाथ के चरण पादुका नामक स्थल जो ऋषिगंगा के किनारे पर है, वर्षों तक साधना भी की थी। जिस समय उन्हें डायबटीज ने घेरा था तब यह बीमारी असाध्य सी थी। जोशी जी का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था, परंतु लगता है उन्होंने तब ही तय कर लिया था कि ऐनकेन प्रकारेण ज्योतिष, शोध आदि की परंपरा को तो जीवित ही रखना होगा। शायद इसीलिए उन्होंने बिना जाहिर किये अपने जीते जी अपनी बौद्धिक परंपरा को दो भागों में बांट लिया था। जिसके दो पक्ष थे :- भौतिक और आध्यात्मिक, कर्मकांड और ज्योतिष।

इसी क्रम में उन्होंने अपने बड़े पुत्र सुधाकर को पाश्चात्य शिक्षा की तरफ मोड़ दिया था। जिन्होंने कुछ समय तक व्यवसाय कर वेधशाला को थामने का प्रयास किया, किंतु शुगर की बीमारी से उनकी किडनी जबाब दे गई और वे जल्द ही चले गए। द्वितीय पुत्र दिवाकर ने पौरोहित्य का काम संभाला, परन्तु विवाह के कुछ समय बाद एक पुत्री को जन्म देकर वे भी स्वर्गवास हो गये। याने परिवार पर एक के बाद एक दुःख का पहाड़ टूटता गया।

जैसा कि हम परंपरा विभाजन की बात कर रहे थे। निश्चय ही जोशी जी ने अपनी अंतर्दृष्टि से भांप लिया था कि शेष दो पुत्र प्रभाकर और भास्कर ही उनकी असली विरासत आगे बढ़ाएंगे। इसीलिए उन्होंने तृतीय पुत्र प्रभाकर को सामाजिक एवमं व्यवहारिक अध्ययन के मार्ग पर लगा लिया। साथ ही प्रभाकर से एक हस्तलिखित समाचार पत्रिका का कार्य शुरू करवा दिया। बिना किसी औपचारिक घोषणा के उन्हें पुस्तकालय प्रवंधन में डाल दिया।

सबसे छोटे पुत्र भास्कर को पारंपरिक संस्कृत शिक्षा की ओर मोड़ दिया था। यद्यपि नगर को अभी भी आशा की कोई किरण नजर नही आ रही थी, पर किसी तरह संघर्ष और हिम्मत कर इन दोनों भाइयों ने वेधशाला की परंपरा को संभालना प्रारम्भ कर दिया। जिसके बाद प्रभाकर ने एमए तथा पीएचडी हिंदी में कर नौकरी के बजाय वेधशाला की सांसारिक परंपरा को जारी रखने का निश्चय किया और लेखन अध्ययन और पत्रकारिता को ही अपना जीवन बनाया।

दूसरी तरफ भास्कर ने आचार्य परीक्षा पास कर कर्मकांड, ज्योतिष और साधना के क्षेत्र में प्रसिद्धि हासिल की। भास्कर में शुरू से ही सन्यासी प्रवृत्ति रही, वह हर साल बदरीनाथ में महाप्रभु की बैठक में, जो शिवालय के पीछे है, साधना में लीन रहते थे। उन्होंने कथा प्रवचन भी करना प्रारम्भ किया। कथा करते समय उनकी नजर हमेशा स्वयं और पुस्तक में रहती थी। कभी वे श्रोताओं की तरफ नहीं देखते। न कभी हंसी, मजाक या असामयिक प्रसंग छेड़ते। आज उनमें आचार्य जी की प्रत्यक्ष छवि नजर आती है। स्वभाव से सौम्य अभिमान रहित और सच्चे साधक लगते हैं।

संकटों से पार पाकर दोनों भाईयों ने वेधशाला को उसका वैभव लौटा दिया। वही पुरानी रौनक, वही आगंतुकों का जमावाड़ा, उनका आतिथ्य आदि सब लौटा ही नही, ऊंचे आयाम तक पहुंच गया। यह भी प्रमाणित कर दिया कि आचार्य जी के जाने के बाद न वेधशाला के यंत्र खड़े मुहं बाए हुए हैं, बंद हैं बल्कि आगंतुक व शोध छात्र वहां अध्य्यन के लिए आते रहते हैं और मुफ्त आवास और प्रसाद स्वरूप भोजन भी पाते हैं। वह भी पूरी तरह पारिवारिक वातावरण में।

इस परम्परा को जीवित रखने में अगर किसी का सच्चा योगदान है तो वह है आचार्य स्व. पं. चक्रधर जोशी जी की धर्मपत्नी श्रीमती विद्या देवी की। जो प्रारम्भ से ही परिवार और अतिथि सत्कार, सेवा को अपनी साधना में चुकी है। जीवन के इस अन्तिम पड़ाव पर भी  उनकी सेवा वृत्ति यथावत है। निश्चय ही वे पूज्यनीय एवम अनुकरणीय है।

अंत मे चलते चलाते एक घटना जो वेधशाला की निस्वार्थ सेवा परंपरा से जुड़ी है उसका उल्लेख करना भी जरूरी है। देवप्रयाग के परिचित विद्वान श्री गिरधर पंडित जी ने बताया कि आचार्य जी ने खुद उन्हें अपने श्रीमुख से सुनाई थी कि :-

‘एक बार दक्षिण भारत का एक निर्धन युवा साधु सर्दी की रात में पैदल देवप्रयाग पहुंचा। अमूमन सर्दियों में पहाड़ में लोग आठ बजे तक भोजन कर निपट जाते हैं। होटल भी बंद हो जाते है। यह साधु भूखा था। किसी ने इसे वेधशाला के रास्ते लगा दिया। वहां भोजन देर से ही होता है। करीब 10 बजे के बाद वह साधु भटकता हुआ वेधशाला पहुंचा। लेकिन अंधेरे में नीचे खेत में गिर गया। पैरों पर उसके खरोंच आ गई थी। गिरते ही वह जोर से चिल्लाया  कारण कि वह गेट से अंदर दाखिल नहीं हो सका, बन्द होने के कारण।

उसकी आवाज सुन जोशी जी ने कारिंदों से उसे ऊपर लाने को कहा। इतने में जोशी की दया मूर्ति पत्नी भी वहां आ गई तुरन्त  आचार्य जी ने उनसे कहा- ’सुधाकर की माजी यह तो बहुत ऊंचे दर्जे का फकीर हैं हमारे भाग्य से भगवान ने इन्हें यहां भेज दिया। इसके लिए पहले तो गर्म पानी करो, फिर भोजन बनाओ ऐसे लोगों की सेवा दुर्लभ होती है। आचार्य जी की पत्नी बिना किसी प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यक्त किये तुरन्त सहर्ष आदेश पालन कर पानी ले आयी। जोशी जी ने अपने हाथों से उस साधु को तौलिया भिगाकर पोंछा फिर तेल मालिश की और भोजन कराया। अचार, पापड़, घी, दही सब भोजन में था। फिर उसके सोने की व्यवस्था भी की।’

जब यह वृत्तांत मैंने सुना तो उनसे सवाल किया बुढ़ाजी (पिता के मामा) क्या वह सचमुच में पहुंचा हुआ, ऊंचे स्तर का संत था? तो आचार्य जी मुस्कराए और बोले ’यह अच्छे भोजन की आस लेकर आया था। अगर मैं उसे महिमामंडित नहीं करता तो कारिंदे और परिवारजंन श्रद्धा और उत्साह से सेवा नहीं करते। इसलिए उसे उच्चकोटि का संत बताना पड़ा। जीवन में ऐसी सेवा से बढ़कर कोई पूजा नही है।’ आप आश्चर्य करेंगे कि आचार्य जी बहुत अच्छे मजाक भी कर लेते थे। जो समसामयिक और सटीक होते थे।