त्यागी ब्राहम्ण उत्तपत्ति रहस्य
त्यागी आदि गौड़ ब्राह्मण में आते हैं
आदि गौड़ ब्राह्मण (सृष्टि के प्रारंभ से गौड़ या आदि काल से गौड़ ) या गौड़ ब्राह्मण "पृथ्वी के प्रथम शासक ब्राह्मण" उत्तर भारतीय ब्राह्मणों की पांच गौड़ ब्राह्मणों की मुख्य शाखा का प्रमुख भाग है ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्डय तथा महाभारत में जनमेजय के छः और भाई बताये गये हैं। यह भाई हैं कक्षसेन, उग्रसेन, चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण तथा नख्यसेन। महाकाव्य के आरम्भ के पर्वों में जनमेजय की तक्षशिला तथा सर्पराज तक्षक के ऊपर विजय के प्रसंग हैं। सम्राट जनमेजय अपने पिता परीक्षित की मृत्यु के पश्चात् हस्तिनापुर की राजगद्दी पर विराजमान हुये। पौराणिक कथा के अनुसार परीक्षित पाण्डु के एकमात्र वंशज थे। उनको श्रंगी ऋषि ने शाप दिया था कि वह सर्पदंश से मृत्यु को प्राप्त होंगे। ऐसा ही हुआ और सर्पराज तक्षक के ही कारण यह सम्भव हुआ। जनमेजय इस प्रकरण से बहुत आहत हुये। उन्होंने सारे सर्पवंश का समूल नाश करने का निश्चय किया। इसी उद्देश्य से उन्होंने सर्प सत्र या सर्प यज्ञ के आयोजन का निश्चय किया।
पृथ्वी के "प्रथम शासक" ब्राह्मण
(ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्डय प्रथम प्रकरण 28, पृष्ट संख्या 426 - 427 के अमुसार) राजा जन्मेजय ने सर्पदमन यज्ञ करने हेतु महामुनि बटटेश्वर / बटुकेश्वर को आमंत्रित किया मुनि अपने 1444 शिष्यों सहित 'सर्पदमन' वर्त्तमान 'सफीदों' कुरुक्षेत्र नमक स्थान पर (कहीं कहीं यह स्ताहन हिरन ग्राम उत्तरप्रदेश भी बताया जाता है) पधारें तथा यज्ञ अरंभ किया, यह यज्ञ इतना भयंकर था कि विश्व के सारे सर्पों का महाविनाश होने लगा। परन्तु वास्तविक स्थान ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्डाय के अनुसरा सर्पदमन ग्राम ही है
उस समय एक बाल ऋषि अस्तिक उस यज्ञ परिसर में आये। उनकी माता मानसा एक नाग थीं तथा उनके पिता एक ब्राह्मण थे।
इस संदर्भ में यह बताना उचित होगा कि कुछ जातियों ने तो उनके रीति-रिवाज़ स्वीकार कर लिए किन्तु कुछ ने इससे साफ़ इनकार कर दिया। इन जन-जातियों को आर्य पृथक-पृथक नाम दे देते थे और क्योंकि उस युग में उनकी प्रभुता थी, इस कारण से उनके द्वारा लिखे या बोले गये ग्रन्थों में यही नाम आज भी उजागर होते हैं। आर्यों ने ऐसी जन-जातियों को, जो उनके वश में न आ सके ऐसे नाम दे डाले जिनसे वह स्वयं भयभीत होते हों। उदाहरण के लिए नाग, असुर, दानव इत्यादि। तो यदि जनमेजय नाग वंश का समूल नाश करने जा रहे थे, तो उसका अभिप्राय यह है कि आर्यों की दृष्टि में भारत की कोई जन-जाति, जो उनके वश में नहीं थी और जिसका उन्होंने नाग से नामकरण कर दिया था, उस जन-जाति का विनाश होने जा रहा था। अस्तिक के आग्रह के कारण जनमेजय ने सर्प सत्र या यज्ञ समाप्त कर दिया।
ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्डया के अनुसार यज्ञ समाप्ति के पश्चात राजा जन्मेजय महा मुनि बटटेश्वर उनके 1444 शिष्यों को दक्षिणा देने हेतु प्रस्तुत हुवे परन्तु महा मुनि ने दक्षिणा लेने के प्रतिग्रह को स्वीकार नहीं किया तत्पश्चात राजा में युक्तिपूर्वक एक एक गांव का राज की चिट्ठी ताम्बूल पत्र में बांध कर बीड़े के रूप में जाते समय प्रत्येक मुनि को थमा दी यहाँ ग्राम राज दान की चिट्ठी बड़े ही युक्ति पूर्वक दी गयी तथा सभी मुनियों ने तमंबुल का बीड़ा समझ ग्रहण कर ली तत पश्चात वे सभी गंगा नदी तट पहुंचे , जब वे आये थे तब तपोबल से नदी के जल पर पैर रख चलक आये थे परन्तु जब जाने लगे तब उनसभी के पैर नदी में डूबने लगे ब्राह्मणों में अपनी शक्ति के चलेजाने का कारण स्पष्ट न हुवा और उन्होंने तुरंत अपने अपने तंम्बूल पत्र के बीड़े खोलकर देखे तो उनमें ग्राम राज दान के पत्र थे ब्राह्मणों ने राजा की इच्छा को विष्णु की इच्छा माना तथा गुरु बटेश्वर या बटकेश्वर की आज्ञा ले उन गावों कीओर चल दिए जो गांव उन्हें शासन स्वरुप दिए गए इस प्रकार अपने अधीन 1444 गावों के शासक हुवे और यही उनका नख या अल्ल्ह कहलाया इससे पूर्व प्रभु परशुराम ने कई बार पृथ्वी को जीत यह भूमि ब्राह्मणों को कई बार दान स्वरुप दी थी वो शासन भी कालांतर में गौड़ समूह का भाग कहलाया इसप्रकार गौड़ ब्राह्मणों के कुल शासन 1444 से भी अधिक हो गए इस प्रकार ब्राह्मणों के शासक हो जाने पर अपने ही शासन में विवाह निषेध की व्यवस्था लागु की क्योंकि एक राजा अपने शासन में कभी विवाह नहीं कर सकता यह व्यवस्था पौराणिक और आदि काल की है जिसे सम्पूर्ण गौड़ वंश निभाता है ये ही गौड़ ब्राह्मण पृथ्वी पर सर्वप्रथम शासक ब्राह्मण हुवे यह शासन उन्हें महारज जन्मेजय तथा प्रभु परशुराम ने प्रदान किये थे प्रभु परशुराम के काल में परशुराम ने जीता हुवा शासन क्षत्रियों को न दे ब्राह्मणों तथा अपने गुरु को दान की थी जिसका पुराणिक उल्लेख उपलब्ध है I
तबजब यहाँ घटना घटित हो रही थी उसी समय वेद व्यास के सबसे प्रिय शिष्य वैशम्पायन वहाँ पधारे। जनमेजय ने उनसे अपने पूर्वजों के बारे में जानकारी लेनी चाही। तब ऋषि वैशम्पायन ने जनमेजय को भरत से लेकर कुरुक्षेत्र युद्ध तक कुरु वंश का सारा वृत्तांत सुनाया। और इसे उग्रश्रव सौती ने भी सुना और नैमिषारण्य में जाकर सारे ऋषि समूह, जिनके प्रमुख शौनक ऋषि थे, को सुनाया।
इसी घटना पर प्रकाश डालतें हुए त्रेता युगीय श्रंगी ऋषि की आत्मा ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी ने भी अपने यौगिक प्रवचनों में कहा हैं कि जनमजेय ने आदि ब्राह्मणों को यज्ञ हेतु आमंत्रित किया। और जब यज्ञ में हिंसा हुई तो इस कारण उन ब्राह्मणों में दान लेने से मना किया तो उन्हें भूमि का दान देकर विदा किया और वही आदि ब्राह्मण आज त्यागी नाम से समाज मे जाने जाते हैं। यह आदि गौड़ ब्राह्मणों के अंतर्गत आते हैं। इनके प्रत्येक गांव के अलग अलग गोत्र हैं और सभी गोत्र ब्राह्मण गोत्र हैं। इस जाति भेद के कारण त्यागी ब्राह्मण समुदाय अन्य ब्राह्मणों में विवाह नही करता। मगर अब कुछ करने लगे हैं। मगर गोत्र परम्परा का वहां ध्यान रखा जाता है।
गलता तीर्थ
राजस्थान के जयपुर के समीप स्थित गलता तीर्थ भी गौड़ ब्राह्मणों से सम्बंधित है आदि काल में महा मुनि गालव ऋषि ने इस स्थान को अपनी तपस्थली बनाया था महर्षि गालव ने ही सम्पूर्ण उत्तर भारतीय ब्राह्मणों को गौड़ नाम दिया था इन्ही पांच गौड़ ब्राह्मणों जो की गौड़ ब्राह्मण ही हैं कालांतर में ब्राह्मणों के घेरने के पांच महा वृक्ष हुवे I
गौड़ ब्राह्मणों का मुख्य वेद यजुर्वेद तथा सामवेद है कालांतर में अथर्वेदी गौड़ ब्राह्मण सुथार तथा स्वर्णकारों के गुरु होकर उनकी के समाज के भाग हो गए इस क्रम में ८ - ८ अथर्वेदी ब्राह्मणों के कुल सुथारों तथा स्वर्णकारों के गुरु कहलाये ये अथर्ववेदी ब्राह्मण अपने नाम के पीछे ब्राह्मणों का मुख्य और पुरातन आस्पद "शर्मा" धारण करते हैं
त्यागी शुक्ल यजुर्वेदीय ब्राह्मण हैं व उनकी मानध्यादिनी शाखा है।
त्यागी जाति की उत्पत्ति का भेद ब्रह्नचारी कृष्णदत्त महाराज (पूर्व जन्म श्रंगी ऋषि की दिव्य आत्मा ) के प्रवचनों के अनुसार
राजा जन्मेजय का यज्ञ
गुरु जी! महाभारत के काल के पश्चात् यह तो आपको प्रतीत ही है, कि जब राजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय हुए और जिन्होंने एक सर्वस्व यज्ञ किया। जितनी उनके द्वारा सम्पत्ति थी, सब यज्ञ में अर्पण कर दी। जब गरुदेव! महाराज जन्मेजय ने यह निश्चय किया, कि जितनी मेरी सम्पत्ति है, वह सब यज्ञ में अर्पण हो, तो वहाँ कुछ ऐसा पाया गया, कि उस कार्य में आदि ब्राह्मणों को निमन्त्रण देकर यजन किया गया। महर्षि जैमिनी मुनि उस यज्ञ के ब्रह्मा बने और ब्रह्मा बन, उस यज्ञ को पूर्ण कराया। पूर्ण कराकर ऐसा कार्य हुआ, कि आचार्य जी ने भविष्य की वार्त्ता उच्चारण करते हुए कहा कि आपका यज्ञ सफल नहीं होगा। महाराजा जन्मेजय यज्ञमान सहित विराजमान थे। वहाँ एक ब्राह्मण ने मग्नता ( मज़ाक ) मनाई, तो उनके हृदय में यह भावना प्रगट हुई, कि यह ब्राह्मण तेरी मग्नता मना रहा है। उसने उस ब्राह्मण के कण्ठ से ऊपर के भाग को, अपने वज्र से अलग कर दिया देखिए गुरुदेव! जब उसको यज्ञशाला में अर्पण कर दिया, तो यज्ञ भ्रष्ट हो गया, जब यज्ञ भ्रष्ट हो गया, तो वहाँ से ब्राह्मणों ने त्याग किया, कि हम कदापि भी द्रव्य ( दक्षिणा ) न लेगें, दान के पात्र नहीं बनेंगे। जब महाराजा जन्मेजय ने यह वार्त्ता सुनी तो उन्हें ज्ञान हुआ, कि तेरे गुरु ने तुझे संकेत किया था,परन्तु तब भी तूने ब्राह्मण के शीश को समाप्त कर दिया, अब तुझे क्या करना चाहिए?
तो गुरु जी हमने ऐसा पाया है कि ब्राह्मणों को द्रव्य दे करके, भूमि का दान दे करके, वहाँ से पृथक कर दिया। वहाँ से गुरुदेव! जातिवाद प्रारम्भ हो गया। उसके पूर्व वर्ण व्यवस्था थी। जो ब्राह्मण के कर्म करने वाले थे, वह ब्राह्मण बने रहे और भगवन्! इसके पश्चात् जिन्होंने ( दान,दक्षिणा ) त्याग दिया, उन्हें त्यागी रूपों से पुकारने लगे। अब यहाँ से उनमे जातिवाद का भेद बन गया।
ब्रह्नचारी कृष्णदत्त जी महाराज ( त्रेता युगीय श्रंगी ऋषि की आत्मा )
दिनांक- 12 मार्च 1962 समय- रात्रि : 8 बजे बी सी पार्क सरोजनी नगर,नई दिल्ली
त्यागी जाति के गोत्र
त्यागी जाति गोत्रावली
(1). अत्रि,
(2). मुदगल,
(3). कौशिक
(4). गौतम
(5) वसिष्ठ
(6) वात्स्यायन
(7) गर्ग
(8). पराशर
(9) भारद्वाज,
(10). कौण्डिन्य
(11) कपिल,
(12) जमदग्नि,
(13). भार्गव
(14) शांडिल्य
(15) पाणिनि
(16). वत्स,
(17). अगस्त्य,
(18). कुश,
(19). कुशिक,
(20 ). कश्यप
(21).कात्यायन,
(22) जैमिनी,