‘अजन्मी की पीडा ‘ लिखने की प्रेरणा मुझे स्थानीय अखबार में प्रकाशित एक फोटो के साथ खबर जिसमें शहर की मशहूर सूखी हुई झील में आवारा कुत्तों एवं अन्य जानवरों द्वारा तीन क्षत विक्षत अविकसित कन्या भ्रूण के शवों के अंग बिखरे हुए दिखाए गए थे। खबर ने मेरे अंतर्मन को नफरत और पीडा से भर दिया। उसकी अभिव्यक्ति ‘अजन्मी की पीडा ‘ में हुई। इस कविता की पहली लाइन जिस किसी शायर ने लिखी हो उनसे बिना अनुमति प्रयोग करने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं। कविता के कथा वस्तु के बारे मैं स्वयं कुछ नहीं कहूंगा आप खुद पढ़कर अच्छे बुरे का फैसला लीजिए। अजन्मी की पीडा मां मुझे छुपा ले अपने आंचल में नजर बुरी परिवार की, मुझे न लग जाए कुछ ही बीता है समय, देह में तेरी आए हुए तुझे मैंने पत्नी से मां बना दिया है परिणीता बन परिवार को समर्पित थी अब मैं तेरी समर्पण की परिणति हूं स्पदंन अभी प्रारंभ ही हुए हैं, हृदय में मेरे अंगों का विकास अभी, पूरा भी नहीं हुआ था फुसफुसा हटें लगी तैरने, सारे घर में स्वर मुखर, मेरी दादी का ही था परंतु अभी मेरी समझ से, दूर था सब मम्मी पापा के बीच हुई, तकरार एक दिन मेरा वजूद हिल गया, सुनकर बातचीत कामना थी परिवार को, कुल दीपक की वंश चलता है पुत्र से, पितृ लेते तर्पण उसका बेटियां सदा अपनी, प्रवासी पंछी होती हैं एक बेटी ही थी, मेरी बडी मम्मी को ताने सुनती थी मैं, दादी को दीदी को देते हुए बेटा न हुआ कसूर सारा, उसी का ही था तय हुआ मेरा लिंग परीक्षण करवाने का बेटा हुआ तो, परिवार दुनिया दिखाएगा वरना कत्ल करवा दी जाऊंगी, नक़ाबपोश के हाथ कैसा क्रूर भविष्य मेरे लिए नियत था दे दो मां मुझे मौका, इस दुनिया में आने का प्रमाणित करने नारी की, सार्थकता को तू मुझ पर ध्यान न भी देगी, रोता देखकर भूख लगने पर या कपडे गीले होने पर शैशव लूंगी काट बिना तेरे, आंचल की छाया के करेंगे इजाफा उम्र में मेरी, परिवार के ताने मजबूत होगी मेरी जीवन डोर, तिरस्कार सहकर चलने लगूँगी जल्दी, घुटनों पर चलते गिर गिर के उठूंगी, आशा में उठा लेगी तू मुझ को तकलीफ तुझे न होगी, मेरे लालन पालन में मां कह कर पुकारूंगी, तोतली बोली में मातृत्व तेरा धन्य होगा, पुकार मेरी सुनकर काट दूंगी बचपन, बिना गुडिया खिलोनें के पेट भर लूंगी, परिवार का बचा खुचा खाकर

फरियाद न करूंगी, लब सिल लूंगी

यूं भी कोई ध्यान नहीं देता, कन्या की जिद पर दुत्कार ही मिलता है, बेटी को परिवार में सदा मत गाना लोरी, आंचल में समेटे सुलाते हुए सदा खिलखिलाती, दौडी चली आऊंगी पुकारेगी जब भी, तू मुझे ममता से गले नहीं लगाएगी क्या, इस जिस्म के टुकडे को क्यों सजा ए मौत, मुझे सुना रही है रहम कर मां दे मौका, इस दुनिया में आने का हां सिल करने है मुझे, कई मकाम जिंदगी के मैं भी रोशन करूंगी, नाम खानदान का क्या जिम्मे हैं, सारे बुलंद काम मर्दों के मेरी योग्यता की महक, फैलेगी सारे जग में साबित कर दूंगी, अबला नहीं है नारी फहरा दूंगी तिरंगा, एवरेस्ट की चोटी पर जीत लूंगी समंदर सातों तैरकर काल के गाल से, नोच लूंगी जिंदगी नई नई दवा मर्ज की, करके ईजाद तेरी पहचान मैं बनूंगी, समाज में कदमों में ला डाल दूंगी, खेल के सारे तम गे दूर सितारों में फहराएगा, नाम का तेरे परचम नाम तेरा भी शामिल होगा, मेरी कहानियां में लोग पूछेंगे किसकी बेटी है, यह मर्दानी कदम सुनीता के ठहरेंगे, अनेक सितारों पर अंतरिक्ष भी नाप लूंगी मैं, कल्पना से परे हांसिल क्या होगा, सपनों को मेरे मिटाकर लाठी बनूंगी मां, मैं तेरे बुढ़ापे की बेटी ही नहीं माँ, तेरी सहेली भी बनूंगी दिल तेरा जब, गम से लबरेज़ होगा लिपट कर रो लेंगे, दोनों साथ साथ रूखे बिखरे बाल, सूखा थका बेनूर चेहरा चूल्हे चैाके में लगे रहना, देर रात तक तेरा याद भी न होगी, नव वधु की हाथों की हीना काला हुआ लाल रंग, बरतन मलते मलते चुभते हैं तेरे हाथ, जब सहलाते हैं मुझे आरजू सब खाक हुई, रसोई के उठते धुंऐ में बेनूर हो गयी सब उम्मीदें, बदरंग दीवारों के साथ मां मत जा, नकाबपोश कातिल के पास कितनी ही कन्याएं, शहीद हो गई इस शफाखाने में जुदा कर देंगे मुझे, काट काट कर कोख से मेरे आंसू मेरी चीखें, ना सुनाई देंगी तुझे खींचकर टाँगें मेरी, औजार से कोख में डालकर खंजर से छलनी कर देंगे, शीश मेरा अटकेगा जब, कोख के द्वार पर खाली करेंगे माथा मेरा, कुरेद कुरेद कर फैला होगा चारों तरफ मेरा, नवजात खून तर्पण कर देंगे सफेद कातिल, धोकर हाथ अपने पडे होगे अधूरे जिस्म के टुकडे, किसी कूडाघर में जला दिए जाएंगे चुपके से, नाकारा चीजों के साथ तुझे गवारा होगा, तेरे जिस्म के टुकडों को आवारा कुत्ते सूअर, लूट खसोट करेंगे आपस में चील कौवे दावत उडाऐगें, वीरान सूखे गड्ढ़ों में कहां है तहजीब के रहनुमा और घर्मगुरू जिनके इशारों पर कौम चलती हैं प्रदर्शन जुलूस धरना मतलब से देते हैं जो हमेशा हर ऐक नागवार बात पर धर्म को तोडते और मरोडते है, मतलब के लिए मोहरे चलाते हैं राजनीति के, धर्म के नाम पर मय पिलाते हैं मजहब की, जुनून की हद तक नया मुद्दा देते हैं अवाम को खुमारी के उतार से पहले दखल देते हैं हर नापसंद बात पर फिर क्यों चुप हैं, इस सामाजिक बुराई पर रहनुमा खामोश हैं, नेता बहस में मशगूल हुल्लड खूब करते हैं, ईबादतगाहों के लिए मकबरा एक भी नहीं बना, अजन्मी कन्या का हुकूमत भी बस कानून बनाकर संसद में बरी अपनी जिम्मेदारी से हो गई है जाकर देखा है कभी, किसी जच्चा खाने में कितनी कत्ल हुई है, जचगी दर्द से पहले खो गईं, ताजी राते हिन्द की, सब दफाएं नोकर शाह बेबस हैं, रसूखदार तबीबों के सामने हिम्मत कर कोई, कार गुजारी कर दिखाता है बेदाग छूट जाते हैं, सरपरस्त नेता के इशारे पर नेता अफसर रईस, सिजदा करते हैं इन्हीं तबीबो के सामने, पुत्र चाहत में दरगाह मजार मंदिर ओझा हकीम तांत्रिक रोजी रोटी खूब चलती है इनकी पुत्र चाहत और नसीब के मारो से शहीद होती रहेंगी कब तक, बेटियां बेटे की चाहत में शमा ए जिंदगी कितनी, गुल कर दी गई जन्म से पहले मज़हब खामोश है, कानून की आंखों पर पर्दा है आँखें उनकी सिर्फ, अपना मतलब देखती है पूजा रोज करती है मां तू देवी की पहरों आमादा है आज तू उसका प्रतिरूप मिटाने को पारायण रोज करती है जिस किताब का नारी महिमा से परिपूर्ण एक मर्द रचित महाकाव्य सिर्फ नारी को समर्पित है बहुत चरण धो लिए तिलक लगाए नव रात्रि में अस्तित्व आज बचाना है पूजित कन्या का रोज गाती है तू नारी शक्ति नारायण की शक्ति नारायण की आज क्यों सोई है तु नारी निष्ठुर नागिन से भी ज्यादा हो गयी है नागिन भी खाती बच्चों को प्रसव के बाद मां भी रोती हैं संतान को दंडित कर मृत्युदंड क्यों मुझे तू दे रही है हिम्मत कर बगावत कर ले जमाने से मां का हक जताने में, जीवनदान मुझे दिलाने में अगर चुप रही आज जमाने के लिहाज में कन्या एक शहीद हो जाएगी पुत्र चाहत में देवता भी धरती से पलायन कर गए हैं अब नारी की दुर्दशा ईस धरा पर देखकर हम कब धर्म को व्यवहार में लाएंगे मंदिर के पाषाण कब विरोध करते हैं सुनाई नहीं देती मेरी आर्तनाद, किसी शिवालय को मुझे भी बराबर हक है, जीने का हसीन दुनिया में एक को बिठाते हो तख्ते हिन्दोस्तान पर उसी को कुचलते और मसलते हो परिवार में सजा कर प्रतिरूप चौकी पर, रोज़ पूजा होती है तिरस्कार अनादर सहती है रोज, उसी घर में रुकेगा भी कभी सिलसिला कन्या की हत्या का याददाश्त की मियाद परिवार की, छोटी होती है करेंगे फिर भूल जाएंगे, मां तेरे महीने चढते आ गया अब कारवां, कत्ल खाने की चौखट पर मैं थक गयी तुझे जगाने में, पैर मार मार कर आंखें सूखी होंठ बंद है, लरजती कोमल काया है कर दिया समर्पण मैंने, सफेद पोश जल्लादों के सामने एक नश्तर लगा और आजाद हो गयी तेरी कोख अनचाहे गर्भ से सदा के लिए नहीं रुकूंगी मैं मां परलोक में ज्यादा लौट कर फिर आऊँगी कोख में तेरी कन्या बनकर।। विजय कुमार ‘नाकाम’